उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
विशालसिंह–गद्दी के उत्सव के लिए मैं प्रजा का गला नहीं दबाऊँगा। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि उत्सव मनाया ही न जाये।
वज्रधर–हुज़ूर यह क्या फ़रमाते हैं? ऐसा भी कहीं हो सकता है?
विशालसिंह–खैर, देखा जायेगा। ज़रा अन्दर जाकर रानियों को खुश-ख़बरी दे आऊँ!
यह कहकर कुँवर साहब घर में गये। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। वह पीछे की तरफ़ की खिड़की खोले खड़ी थी। उस अन्धकार में उसे अपने भविष्य का रूप खिंचा हुआ नज़र आता था। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदान्ध आँखें खोल दी थीं। वह घर से निकलने की भूल स्वीकार करती थी। लेकिन कुँवर साहब का उसको मनाने न जाना बहुत अखर रहा था। इस अपराध का इतना कठोर दण्ड! ज्यों-ज्यों वह स्थिति पर विचार करती थी, उसका अपमानित हृदय और भी तड़प उठता था।
कुँवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा–रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की। जिस बात की आशा थी, वह पूरी हो गई।
रोहिणी–तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। जब कुछ न था, तभी मिज़ाज़ न मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जायेगा। काहे को कोई जीने पाएगा?
विशालसिंह ने दुखित होकर कहा–प्रिये, यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनय सुन ली।
रोहिणी–जब अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर चाटूँगी?
विशालसिंह को क्रोध आया, लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जायेगी, कुछ बोले नहीं। वहाँ से वसुमती के पास पहुँचे। वह मुँह लपेटे पड़ी हुई थी। जगाकर बोले–क्या सोती हो, उठो, खुशखबरी सुनाएँ।
वसुमती–पटरानीजी को तो सुना ही आये, मैं सुनकर क्या करूँगी? अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी। तो यहाँ बचा हुआ सत्तू खानेवाले पाहुने नहीं हैं?
विशालसिंह–क्या कहती हो? मेरी समझ में नहीं आता।
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