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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


वसुमती–हाँ, अभी भोले नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आएगा? गर्दन पर छुरी फेर रहे हो, ऊपर से कहते हो कि तुम्हारी बातें समझ में नहीं आतीं। ईश्वर मौत भी नहीं दे देते कि इस आये दिन की दाँता किलकिल से छूटती। यह जलन अब नहीं सही जाती। पीछेवाली आगे आयी, आगेवाली कोने में। मैं यहाँ से बाहर पाँव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो। किसी के हाथों में भी जस नहीं, किसी की लातों में भी जस है।

विशालसिंह दुःखी होकर बोले–यह बात नहीं है, वसुमती! तुम जान-बूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था। ईश्वर से कहता हूँ, उसका कमरा अँधेरा देखकर चला गया; देखूँ क्या बात है!

वसुमती–मुझसे बातें न बनाओ, समझ गए। तुम्हें तो ईश्वर ने नाहक मूँछे दीं। औरत होते तो किसी भले आदमी का घर बसता। जाँघ तले की स्त्री सामने होते तो किसी भले आदमी का घर बसता। जाँघ तले की स्त्री सामने से निकल गयी और तुम टुकुर-टुकुर ताकते रहे। मैं कहती हूँ, आखिर तुम्हें यह क्या हो गया? उसने कुछ कर-करा तो नहीं दिया? जैसे काया ही पलट हो गई! जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, यह रियासत का भार क्या सँभालेगा?

यह कहकर उठी और झल्लायी हुई छत पर चली गयी। विशालसिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग़ के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति आहट पाकर सिर ऊपर उठाया, तो आँखों में आँसू भरे हुए है। विशालसिंह ने चौंककर पूछा–क्या बात है, प्रिये, रो क्यों रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूँ।

रामप्रिया ने आँसू पोंछते हुए कहा–सुन चुकी हूँ, मगर आप इसे खुशखबरी कैसे कहते हैं। मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गयी, क्या यह खुशखबरी है? अब तक और कुछ नहीं था, तो उसकी कुशल क्षेम का समाचार तो मिलता रहता था। अब क्या मालूम होगा कि उस पर क्या बीत रही है। दुनिया ने संसार का कुछ सुख न देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते-ही-रोते उम्र बीत गयी।

यह कहकर रामप्रिया फिर सिसक-सिसककर रोने लगी।

विशालसिंह–उन्होंने पत्र में तो लिखा है कि मेरा मन संसार से विरक्त हो गया है।

रामप्रिया–इसको विरक्त होना नहीं कहते। यह तो ज़िन्दगी से घबराकर भाग जाना है। जब आदमी को कोई आशा नहीं रहती, तो वह मर जाना चाहता है। यह विराग नहीं है। विराग ज्ञान से होता है, और उस दशा में किसी को घर से निकल भागने की ज़रूरत नहीं होती। जिसे फूलों की सेज़ पर भी नींद नहीं आती थी, वह पत्थरों की चट्टानों पर कैसे सोएगी? बहन से बड़ी भूल हुई। क्या अन्त समय ठोकरें खाना ही उसके कर्म में लिखा था?

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