उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यह कहकर वह फिर सिसकने लगी। विशालसिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफ़िल में बैठ गए। मेड़ूँ खाँ सितार बजा रहे थे। सारी महफ़िल तन्मय हो रही थी। जो लोग फ़ज़लू का गाना न सुन सके थे, वे भी इस वक़्त सिर घुमाते ओर झूमते नज़र आते थे। ऐसा मालूम होता था, मानो सुधा का अनंत प्रवाह स्वर्ग की सुनहरी शिलाओं से गले मिल-मिलकर नन्ही-नन्नी फुहारों में किलोल कर रहा हो। सितार के तारों से स्वर्गीय तितलियों की कतारें-सी निकल-निकलकर समस्त वायुमण्डल में अपने झीने परों से नाच रही थीं। उसका आनन्द उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे।
किन्तु इस आनन्द और सुधा के अनन्त प्रवाह में एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था। वह राजा विशालसिंह थे, सारी बारात हँसती थी, दूल्हा रो रहा था।
राजा साहब ऐश्वर्य के उपासक थे। तीन पीढ़ियों से उनके पुरखे यही उपासना करते चले आते थे। उन्होंने स्वयं इस देवता की तन-मन से आराधना की थी। आज देवता जब प्रसन्न हुए थे, तीन पीढ़ियों की अविरल भक्ति के बाद उनके दर्शन मिले थे, इस समय घर के सभी प्राणियों को पवित्र हृदय से उनकी वन्दना करनी चाहिए थी, सबको दौड़-दौड़कर उनके चरणों को धोना और उनकी आरती करनी चाहिए थी। इस समय ईर्ष्या, द्वेष और क्षोभ को हृदय में पालना उस देवता के प्रति घोर अभक्ति थी। राजा साहब को महिलाओं पर दया न आती, क्रोध आता था। सोच रहे थे, जब अभी से ईर्ष्या के मारे इनका यह हाल है, तो आगे क्या होगा। तब तो आये दिन, तलवारें चलेंगी। इनकी सज़ा यह है कि इन्हें इसी जगह छोड़ दूँ। लड़े–जितना लड़ने का बूता हो, रोए–जितनी रोने की शक्ति हो। जो रोने के लिए बनाया गया हो, उसे हँसाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। उन्हें राजभवन ले जाकर गले का हार क्यों बनाऊँ? उस सुख को, जिसका मेरे जीवन के साथ ही अन्त हो जाता है, इन क्रूर क्रीड़ाओ से क्यों नष्ट करूँ।
१२
दूसरी वर्षा भी आधी से ज़्यादा बीत गई; लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहिल्या का वृत्तान्त गुप्त ही रखा। जब मुंशीजी पूछते–वहाँ क्या बात कर आये? आखिर यशोदानन्दन को विवाह करना है या नहीं? न आते हैं, न चिट्टी-पत्री लिखते हैं, अजीब आदमी हैं। न करना हो तो साफ़-साफ़ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। ख्वामख्वाह झमेले में फँसा रखा है–तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानन्दन बार-बार लिखते, तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं आकर कहूँ? आखिर इस तरह कब तक टालोगे? अहिल्या तुम्हारे सिवा किसी और से विवाह न करेगी, यह मानी हुई बात है। फिर उसे वियोग का व्यर्थ क्यों कष्ट देते हो? चक्रधर इन पत्रों के जवाब में यही लिखते कि मैं खुद फ़िक्र में हूँ। ज्यों ही मौक़ा मिला, ज़िक्र करूँगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जाएँगे।
जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये, तो उनके हौंसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च माँगा जाये। अब वह मनमाना दहेज़ ले सकते थे। और धूमधाम से बारात निकाल सकते थे। राजा साहब ज़रूर उनकी मदद करेंगे, लेकिन मुंशी यशोदानन्दन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ़ से ज़रा भी विलम्ब हो, तो साफ़ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहाँ विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा–मुंशी यशोदानन्दन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं। क्या समझते हैं कि मैं गरजूँ हूँ?
|