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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर–आरक्त मुख और संकोचरुद्ध कण्ड से बोले–मैं तो वचन दे आया हूँ।

निर्मल–चल, झूठा कहीं का, खा मेरी कसम!

चक्रधर–सच अम्माँ, तुम्हारे सिर की कसम!

वज्रधर–तो यही क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ अपने-आप ही तय कर लिया है। फिर मुझसे क्या सलाह पूछते हो? आखिर विद्वान् हो, बालिग हो, अपना भला-बुरा सोच सकते हो, मुझसे पूछने की ज़रूरत ही क्या!  लेकिन तुमने लाख एम.ए. पास कर लिया हो, वह तजुरबा कहाँ से लाओगे, जो मुझे है? इसीलिए तो वह मक्कार तुम्हें वहाँ ले गया था। तुमने लड़की सुन्दर देखी, रीझ गए, मगर याद रखो, स्त्री में सुन्दरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज़ यह शादी न करने दूँगा।

चक्रधर–अगर और लोग भी यही सोचने लगे तो सोचिए, उस बालिका की क्या दशा होगी?

वज्रधर–तुम कोई शहर के काज़ी हो? तुमसे मतलब? बहुत होगा, ज़हर खा लेगी। तुम्हीं को उसकी सबसे ज़्यादा फ़िक्र क्यों हैं? सारा देश तो पड़ा हुआ है।

चक्रधर–अगर दूसरों को अपने कर्तव्य का विचार न हो, तो इसका यह मतलब नहीं कि मैं भी अपने कर्तव्य का विचार करूँ।

वज्रधर–कैसी बेतुकी बातें करते हो, जी!  जिस लड़की के माँ-बाप का पता नहीं, उससे विवाह करके क्या खानदान का नाम डुबोओगे? ऐसी बात करते हुए तुम्हें शर्म की नहीं आती?

चक्रधर–मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊँ, आपकी मर्ज़ी के खिलाफ़ कोई काम न करूँ, लेकिन सिद्धान्त के विषय में मज़बूर हूँ।

वज्रधर–सेवा करना नहीं चाहते, मुँह में कालिख लगाना चाहते हो; मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाए कि मैं अपने कुल में कलंक लगते देखूँ।

चक्रधर–तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूँगा।

यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आए और बाबू यशोदानन्दन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अन्तिम शब्द ये थे– ‘पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धान्त के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता; लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुँचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूँ। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यन्त अविवाहित ही रहूँगा लेकिन यह असंभव है कि कहीं और विवाह कर लूँ। जिस तरह अपनी इच्छा से विवाह करके माता-पिता को दुःखी करने की कल्पना नहीं कर सकता, उसी तरह उनकी इच्छा से विवाह करके जीवन व्यतीत करने की कल्पना मेरे लिए असह्य है।’

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