उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
इसके बाद उन्होंने दूसरा पत्र अहिल्या के नाम लिखा। यह काम इतना आसान न था, प्रेम-पत्र की रचना कविता की रचना से कहीं कठिन होती है। कवि चौड़ी सड़क पर चलता है, प्रेमी तलवार की धार पर। तीन बजे कहीं जाकर चक्रधर यह पत्र पूरा कर पाया। उसके अन्तिम शब्द ये थे–‘‘हे प्रिये, मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूँ जैसा कोई और बेटा हो सकता है। उनकी सेवा में प्राण तक दे सकता हूँ। किन्तु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े, तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में ज़रा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देगीं और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूँ केवल इतनी ही याचना करता हूँ कि मुझ पर दया करो।’
दोनों पत्रों को डाकघर में डालते हुए वह मनोरमा को पढ़ाने चले गए।
मनोरमा बोली–आज आप बड़ी जल्दी आ गये; लेकिन देखिए, मैं आपको तैयार मिली। मैं जानती थी कि आप आ रहे होंगे, सच!
चक्रधर–ने मुस्कुराकर पूछा–तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मैं आ रहा हूँ?
मनोरमा–यह न बताऊँगी, किन्तु मैं जान गई थी। अच्छा, कहिए तो आपके विषय में कुछ और बताऊँ। आज आप किसी-न-किसी बात पर रोए हैं। बताइए, सच है कि नहीं?
चक्रधर न झेंपते हुए कहा–झूठी बात है। मैं क्यों रोता, कोई बालक हूँ?
मनोरमा खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली–बाबूजी, कभी-कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं। क्या रोना और हँसना बालकों ही के लिए है। जवान और बूढ़े नहीं रोते?
चक्रधर पर उदासी छा गई। हँसने की विफल चेष्टा करके बोले–तुम चाहती हो कि मैं तुम्हारी दिव्य-ज्ञान की प्रशंसा करूँ? वह मैं न करूँगा।
मनोरमा–अन्याय की बात दूसरी है, लेकिन आपकी आँखें कहे देती हैं कि आप रोए हैं! (हँसकर) अभी आपने यह विद्या नहीं पढ़ी, जो हँसी को रोने का और रोने को हँसी का रूप दे सकती है।
चक्रधर–क्या आजकल तुम उस विद्या का अभ्यास कर रही हो?
मनोरमा–कर तो नहीं रही हूँ, पर करना चाहती हूँ।
|