उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
लौंगी–इसी से शादी-ब्याह नहीं करते? अब की लाला (वज्रधर) आते हैं, तो उनसे कहती हूँ। लड़के को कब तक छूटा रखोगे?
हरिसेवक–शादी यह खुद ही नहीं करते, वह बेचारे क्या करें! यह स्वाधीन रहना चाहते हैं।
लौंगी–तो कोई रोज़गार क्यों नहीं करते, बेटा?
चक्रधर–अभी इस चरखे में नहीं पड़ना चाहता।
हरिसेवक–ये और ही विचार के आदमी हैं। मायाफाँस में नहीं पड़ना चाहते।
लौंगी–धन्य है बेटा! धन्य! तुम सच्चे साधु हो।
इस तरह की बातें करके ठाकुर साहब चले गये। लौंगी भी उनके पीछे-पीछे चली गयी। मनोरमा सिर झुकाए दोनों प्राणियों की बातें सुन रही थी और किसी शंका से उसका दिल काँप रहा था। किसी आदमी में स्वाभाव के विपरीत आचरण देखकर शंका होती है। आज दादाजी इतने उदार क्यों हो रहे हैं? आज तक उन्होंने किसी को पूरा वेतन भी नहीं दिया, तरक्की करने का ज़िक्र ही क्या। आज विनय और दया की मूर्ति क्यों बने जाते हैं, इसमें अवश्य कोई रहस्य है। बाबूजी से कोई कपट-लीला तो नहीं करना चाहते हैं? ज़रूर यही बात है। कैसे इन्हें सचेत कर दूँ?
वह यही सोच रही थी कि गुरुसेवकसिंह कन्धे पर बन्दूक़ रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आये और बोले–कहिए महाशय! दादाजी तो आज आप से बहुत प्रसन्न होते थे।
चक्रधर ने कहा–यह उनकी कृपा है।
गुरुसेवक–कृपा के धोखे में न रहिएगा। ऐसे कृपालु नहीं हैं। इनका मारा पानी भी नहीं माँगता। इस डायन ने इन्हें पूरा राक्षस बना दिया है। शर्म भी नहीं आती। आपसे ज़रूर कोई मतलब गाँठना चाहते हैं।
चक्रधर ने मुस्कुराकर कहा–लौंगी अम्माँ से मेल नहीं हुआ।
गुरुसेवक–मेल? मैं उससे मेल करूँगा! मर जाये, तो कन्धा तक न दूँ। डायन है, लंका की डायन, उसके हथकंडों से बचते रहिएगा। दादाजी को तो इसने बुद्धू बना छोड़ा है। दादाजी जब किसी पर सख्ती करते हैं, ये तुरन्त घाव पर मरहम रखने पहुँच जाती है। आदमी धोखे में आकर समझता है, यह दया और क्षमा की देवी है! वह क्या जाने कि यही आग लगानेवाली है और बुझानेवाली भी। इसका चरित्र समझने के लिए मनोविज्ञान के किसी बड़े पंडित की ज़रूरत है।
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