उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–यही रहेगा, देख लीजिएगा। मैं मरकर भी आपको नहीं भूल सकती।
इतने में ठाकुर हरिसेवक आकर बैठ गए। आज वह बहुत प्रसन्नचित्त मालूम होते थे। अभी थोड़ी ही देर पहले राजभवन से लौटकर आये थे। रात को नशा ज़माने का अवसर न मिला था, उसकी कसर इस वक़्त पूरी कर ली थी। आँखें चढ़ी हुई थीं। चक्रधर से बोले–आपने कल महाराज साहब के यहाँ उत्सव का प्रबन्ध जितनी सुन्दरता से किया, उसके लिए आपको बधाई देता हूँ। आप न होते, तो सारा खेल बिगड़ जाता। महाराजा साहब बड़े उदार हैं। अब तक मैं उनके विषय में कुछ और ही समझे हुए था। कल उनकी उदारता और सज्जनता ने मेरा संशय दूर कर दिया। आपसे तो बिलकुल मित्रों का-सा बर्ताव करते हैं।
चक्रधर–जी हाँ, अभी तक तो उनके बारे में कोई शिकायत नहीं है।
हरिसेवक–महाराज को एक प्राइवेट सेक्रेटरी की ज़रूरत तो पड़ेगी ही। आप कोशिश करें; तो आपको अवश्य ही वह जगह मिल जायेगी। आप घर के आदमी हैं, आपको हो जाने से बड़ा इत्मीनान हो जायेगा। एक सेक्रेटरी के बग़ैर महाराजा साहब का कार्य नहीं चल सकता। कहिए तो ज़िक्र करूँ?
चक्रधर–जी नहीं, अभी तो मेरा इरादा कोई स्थायी नौकरी करने का नहीं है, दूसरे मुझे विश्वास भी नहीं है कि मैं उस काम को सँभाल सकूँगा।
हरिसेवक–अजी, काम करने से सब आ जाता है और आपकी योग्यता मेरे सामने है। मनोरमा को पढ़ाने के लिए कितने ही मास्टर आये, कोई भी दो-चार महीने से ज़्यादा नहीं ठहरा। आप जब से आये हैं, इसने बहुत खासी तरक्की कर ली है। मैं अब तक आपकी तरक्की नहीं कर सका, इसका मुझे खेद है। इस महीने से आपको ५० रु. महीने मिलेंगे, यद्यपि मैं इसे भी आपकी योग्यता और परिश्रम को देखते हुए बहुत कम समझता हूं।
लौंगी देवी भी आ पहुँचीं। कही-बदी बात थी। ठाकुर साहब का समर्थन करके बोलीं–देवता रूप हैं, देवता रूप! मेरी तो इन्हें देखकर भूख-प्यास बन्द हो जाती है।
हरिसेवक–तो तुम इन्हीं को देख लिया करो, खाने का कष्ट न उठाना पड़े।
लौंगी-मेरे ऐसे भाग्य कहाँ! क्यों बेटा, तुम नौकरी क्यों नहीं कर लेते?
चक्रधर–जितना आप देती हैं, मेरे लिए उतना ही काफ़ी है।
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