उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
मौलवी-भाईयों, आप लोग ख्वाजा साहब की ज्यादती देख रहे हैं। आप ही फैसला कीजिए की दीनी मामलात में उलमा का फैसला वाजिब है, या उमरा का!
एक मोटे-ताजे दढ़ियल आदमी ने कहा– आप बिस्मिलाह कीजिए। उमरा को दीन से कोई सरोकार नहीं।
यह सुनते ही एक आदमी बड़ा-सा छुरा लेकर निकल पड़ा और कई आदमी गाय की सीगें पकड़ने लगे। गाय अब तक तो चुपचाप खड़ी थी। छुरा देखते ही वह छटपटाने लगी। चक्रधर यह दृश्य देखकर तिलिमिला उठे। उन्होंने तेजी से! लपककर गाय की गरदन पकड़ ली और बोले-आज आपको इस गौ के साथ एक इनसान की भी कुरबानी करनी पड़ेगी।
सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे। मौलवी ने क्रोध से उन्मत होकर कहा– कलाम-पाक की कसम, हट जाओ, वरना गजब हो जाएगा।
चक्रधर– हो जाने दीजिए। खुदा की यही मरजी है कि आज गाय के साथ मेरी कुरबानी हो।
ख्वाजा-कसम खुदा की, तुम जैसा दिलेर आदमी नहीं देखा। तुम कलमा क्यों नहीं पढ़ लेते?
चक्रधर– मैं एक खुदा का कायल हूं। वही सारे जहान का खालिक और मालिक है। फिर और किस पर ईमान लाऊं?
ख्वाजा-वल्लाह, तब तो तुम सच्चे मुसलमान हो। हमारे साथ खाने-पीने से परहेज तो नहीं करते?
चक्रधर– जरूर करता हूं, उसी तरह, जैसे किसी ब्राह्मण के साथ खाने से परहेज करता हूं, अगर वह पाक-साफ न हो।
ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते। मगर यहां तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं। यहां तक कि हमें कुत्तों से भी नजिस समझते हैं। वल्लाह, आपसे मिलकर दिल खुश हो गया। जब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाय। अब आप जाइए। मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि कुरबानी न होगी।
ख्वाजा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुखसत किया। इधर उसी वक्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस नौजवान की हिम्मत’ और ‘जवांमर्दी’ की तारीफ करते हुए चले।
चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली।
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