उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
यशोदानन्दन गरजकर बोले-यह कौन पत्थर फेंक रहा है। अगर वह बड़ा बीर है, तो क्यों नहीं आगे आकर अपनी वीरता दिखाता? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेंकता है?
एक आवाज-धर्म-द्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है।
यशोदानन्दन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सच्चा हिन्दू है।
एक आवाज-सच्चे हिन्दू वही तो होते हैं, जो मौके पर बगलें झांकने लगें और शहर छोड़कर दो-चार दिन के लिए खिसक जायें।
यशोदानन्दन-आप लोग सुन रहे हैं, मैं सच्चा हिन्दू नहीं हूं, मैं मौका पड़ने पर बगले झांकता हूं और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा आदमी आपका मन्त्री बनने के योग्य नहीं है। आप उस आदमी को अपना मन्त्री बनायें, जिसे आप सच्चा हिन्दू समझते हों।
यह कहते हुए मुंशी यशोदनन्दन घर की तरफ चले। कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, लेकिन उन्होंने एक न मानी। उनके जाते ही यहाँ आपस में तू-तू ‘मैं-मै,-होने लगी।
चक्रधर ने जब देखा कि इधर से अब कोई शंका नहीं है, तो वह लपक कर मुसलमानों के सामने आ पहुंचे और उच्च स्वर से बोले-हजरत, मैं अर्ज करने की इजाजत चाहता हूं।
एक आदमी-सुनो, सुनो यही तो अभी हिन्दुओं के सामने खड़ा था।
चक्रधर– अगर इस गाय की कुरबानी करना आप अपना मजहबी फर्ज समझते हों, तो शौक से कीजिए। लेकिन क्या वह लाजमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाए? इस्लाम ने हमेशा दूसरों के जजबात का एहतराम किया है। अगर आप हिन्दू जजबात का लिहाज करके किसी दूसरी जगह कुरबानी करें, तो यकीनन इस्लाम के वकार में फर्क न आएगा।
एक मौलवी ने जोर देकर कहा– ऐसी मीठी-मीठी बातें हमने बहुत सुनी हैं। कुरबानी यहीं होगी।
ख्वाजा महमूद बड़े गौर से चक्रधर की बातें सुने रहे थे। मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो? किसी दूसरी जगह नहीं की जा सकती?
मौलवी साहब ने ख्वाजा महमूद की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखकर कहा– मजहब के मामले में उलमा के सिवा और किसी को दखल देने का मजाज नहीं है।
ख्वाजा-बुरा न मानिएगा, मौलवी साहब! अगर दस सिपाही आकर यहाँ खड़ा हो जायें, तो बगलें झांकने लगिएगा!
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