उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर– अभी शोर न कीजिए। सम्भव है कि आपको भ्रम हो रहा हो।
राजा– जरा भी नहीं, जौ-भर भी नहीं: मेरी सुखदा यही है। इसने जितनी बातें बतायीं, सभी ठीक हैं। मुझे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं। आह! आज तेरी माता होती तो उसे कितना आनन्द होता। क्या लीला है भगवान की! मेरी सुखदा घर बैठे मेरी गोद में आ गयी। जरा-सी गयी थी, बड़ी-सी आयी। अरे! मेरा शोक-सन्ताप हरने को एक नन्हा-मुन्ना बालक भी लायी। आओ भैया चक्रधर, तुम्हें छाती से लगा लूं। आज तक तुम मेरे मित्र थे, आज मेरे पुत्र हो। याद है मैंने तुम्हें जेल भिजवाया था? नोरा, ईश्वर की लीला देखी? सुखदा घर में थी, और मैं उसके नाम को रो बैठा-अब मेरी अभिलाषा पूरी हो गयी। जिस बात की आशा तक मिट गयी थी, वह आज पूरी हो गयी।
यह कहते हुए राजा साहब उसी आवेश में दीवानखाने में जा पहुंचे। द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी। दो-चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे। राजा साहब ने बालक को कंधे पर बिठकर उच्च स्वर से कहा– मित्रों! यह देखो; ईश्वर की असीम कृपा से मेरा निवासा घर-बैठे मेरे पास आ गया। तुम लोग जानते हो कि बीस साल हुए, मेरी पुत्री सुखदा त्रिवेणी के स्नान में खो गयी थी? वही सुखदा आज मुझे मिल गयी है और वह बालक उसी का पुत्र है। आज से तुम लोग इसे अपना युवराज समझो। मेरे बाद यही मेरी रियासत का स्वामी होगा। गारद से कह दो, अपने युवराज को सलामी दे। नौबतखाने में कह दो, नौबत बजे! आज के सातवें दिन राजकुमार का अभिषेक होगा। अभी से उसकी तैयारी शुरू करो।
यह हुक्म देकर राजा साहब बालक को गोद में लिये ठाकुरद्वारे में जा पहुंचे। वहां इस समय ठाकुरजी के भोग की तैयारियां हो रही थीं। साधु, सन्तों की मण्डली जमा थी।
पुजारीजी ने कहा– भगवान राजकुंवर को चिरंजीव करें!
राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए १॰॰ बीघे जमीन मिल गयी।
ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं, और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है। उसके मुख-मण्डल पर हार्दिक उल्लास की क्रान्ति झलक रही थी। कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई थी।
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