उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
किन्तु मनोरमा बालक को लिए हुए कमरे से बाहर निकल गयी। राजा साहब भी उसके पीछे-पीछे दौड़े कि कहीं वह गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहल्या रह गए। अहल्या धीरे से बोली-मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो लोग मुझे सुखदा कहते थे।
चक्रधर ने कहा– चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोयी नहीं, मर गयी होगी।
राजा साहब इसी वक्त बालक को गोद में लिए मनोरमा के साथ कमरे में आये। चक्रधर के अन्तिम शब्द उसके कान में पड़ गए। बोले-नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में खो गयी थी। आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी स्नान करने प्रयाग गया था। वहीं सुखदा खो गयी थी। उसकी उम्र कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूँढा; पर कुछ पता न चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारी। मैं भी बरसों तक पागल बना रहा। अन्त में सब्र करके बैठ रहा।
अहल्या ने सामने आकर निस्संकोच भाव से कहा– मैं तो त्रिवेणी के स्नान में खो गयी थी। आगरा की सेवा-समिति वालों ने मुझे कहीं रोते पाया, और मुझे आगरे ले गये। बाबू यशोदानन्दन ने मेरा पालन-पोषण किया।
राजा– तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी?
अहल्या– चौबीसवां लगा है।
राजा– तुम्हें अपने घर की कुछ याद है? तुम्हारे द्वार पर किस चीज का पेड़ था।
अहल्या– शायद बरगद का पेड़ था। मुझे याद आता है। कि मैं उसके गोदे चुनकर खाया करती थी।
राजा– अच्छा, तुम्हारी माता कैसी थीं? कुछ याद आता है?
अहल्या– हां, याद क्यों नहीं आता! उनका सांवला रंग था, दुबली-पतली लेकिन बहुत लम्बी थीं। दिन-भर पान खाती रहती थीं।
राजा– घर में कौन-कौन लोग थे?
अहल्या– मेरी एक बुढ़िया दादी थीं, जो मुझे गोद में लेकर कहानी सुनाया करती थीं। एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कन्धे पर मैं रोज सवार हुआ करती थी। द्वार पर एक बड़ा-सा घोड़ा बंधा रहता था। मेरे द्वार पर एक कुंआ था और पिछवाड़े एक बुढ़िया चमारिन का मकान था।
राजा ने सजल नेत्र होकर कहा– बस-बस, बेटी आ; तुझे छाती से लगा लूं। तू ही मेरी सुखदा है। मैं बालक को देखते की ताड़ गया था। मेरी सुखदा मिल गयी!
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