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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़कर बैठाना चाहा, तो वह जोर से ‘हाय! हाय!’ करके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्नासिंह ने समझा उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही-सही भक्ति भी गायब हो गयी। उनकी ओर आसक्त नेत्रों से देखकर बोला-सरकार, आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आ गए हो और कुछ पुरानी बातों का ख्याल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़े-खड़े बंध जाओ। बाबू चक्रधर सिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किसी गिनती में हो? तुम्हारे ही उपदेश में मेरी पुरानी आदत छूट गयी। गाँजा और चरस तभी छोड़ दिया, जुए के बगीचे नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्नासिंह ने इतना ही कहा था कि रात को यहीं ठहर जाओ, सवेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुंचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी? चक्रधर ने ग्लानि-वेदना से व्यथित स्वर में कहा–  धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूं, मुझे क्षमा करो। जो दण्ड चाहो, दो; सिर झुकाये हुए हूं, जरा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा।

यह कहते-कहते उनका गला फंस गया। धन्नासिंह गद्गद हो गया। बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु भी हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके? मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसे जेहल में समझते थे, तुम्हारी मोटर कहाँ है? चलो, मैं उसे उठाये देता हूँ, या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूं?

चक्रधर ने रोककर कहा, जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जाएगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा, धन्नासिंह, धन्नासिंह! हां, कोई आदमी ऐसा मिले, जो यहां से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी एक चिट्ठी दे दो।

धन्नासिंह जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है, भैया? क्या रियासत में नौकर हो गये हो?

चक्रधर– नौकर नहीं हूं। मैं मुंशी वज्रधर का लड़का हूं।

धन्नासिंह ने विस्मित होकर कहा– सरकार ही बाबू चक्रधरसिंह हैं। धन्य भाग्य थे कि सरकार के आज दरसन हुए।

यह कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गांव में खबर दे आया। एक क्षण में गांव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों ओर हलचल मच गयी। सब-के-सब उनके यश गाने लगे। जब से सरकार आये हैं, हमारे दिन फिर गए हैं, आपका शील-स्वभाव जैसे सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात भगवान हैं।

धन्नासिंह ने कहा– मैंने तो पहचाना ही नहीं। क्रोध में जाने क्या-क्या बक गया।

दूसरा ठाकुर बोला-सरकार अपने को खोल देते, तो हम मोटर को कन्धों पर लादकर ले चलते।

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