उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनन्द न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वही प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति की प्रशंसा कर रहा था। अपमान को निगल जाना चरित्र-पतन की अन्तिम सीमा है। और यही खुशामद सुनकर लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए, उस पर हम फूले नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित-रूप से उनमें समाती जाती है कितने गुप्त और अलक्षित-रूप से में उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धान्त का ह्रास हो रहा है।
चक्रधर को रात-भर नींद न आयी। उन्हें बार-बार पश्चाताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीनजनों की सहायता में गुजरा हो, उसकी यह कायापलट नैतिक पतन से कम न थी।
चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे, अहल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयां ले रही थी। जब चक्रधर ने कमरे में कदम रखा तो अहल्या त्योरियां चढ़ाकर बोली-अब तो रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।
चक्रधर– कुछ तुम्हें खबर भी है। आध घण्टे तक जागता, रहा, तुम न जागीं, तो चला गया। यहां आकर तुम सोने में कुशल हो गयीं!
अहल्या– क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूं?
चक्रधर– अच्छा, अभी तुम्हें उसमें सन्देह भी है! घड़ी में देखो! आठ बज गये हैं। तुम पाँच बजे उठकर घर का धन्धा करने लगती थीं।
अहल्या– तब की बातें जाने दो। अब उतने सवेरे की जरूरत ही क्या है?
चक्रधर– तो क्या तुम उम्र-भर यहाँ मेहमानी खाओगी?
अहल्या ने विस्मित होकर कहा– इसका क्या मतलब?
चक्रधर– इसका मतलब यही है कि हमें यहीं आये बहुत दिन गुजर गये। अब अपने को घर चाहिए।
अहल्या– अपना घर कहां है?
चक्रधर– अपना घर वहीं है, जहाँ अपने हाथों की कमाई है। ससुराल की रोटियां बहुत खा चुका। खाने में तो बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इतने ही दिनों में दोनों कुछ-न-कुछ हो गये। यहां कुछ दिन और रहा, तो कम-से-कम मैं तो कहीं का न रहूंगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते-मारते अधमरा कर दिया। उसका कसूर केवल यह था कि वह मेरे साथ आने पर राजी न होता था।
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