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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


रात बीत चुकी थी अहल्या को नींद आते देर न लगी। चक्रधर का प्रेमकातर हृदय अहल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था, कि जब प्रात:काल वह मुझे न पायेगी, तो क्या दशा होगी।

चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राज-भवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया; पर ऐसा दिशा भ्रम हो गया था कि द्वार का ज्ञान न हुआ। आखिर उन्होंने दीवालों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। चुपके से बाहर के कमरे में आये, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले।

बाहर आकर चक्रधर ने राज-भवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन समग्र नेत्रों वाले पिशाच की भांति जान जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। वह कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर उन्हें कोई पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर न थी। तारों की ज्योति मन्द पड़ चली। चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।

सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास कई आदमी बैठे दिखाई दिये। उनके बीच में एक लाश रखी हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुन्दे लिये पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे- कौन मर गया है? धन्नासिंह की आवाज पहचानकर वह सड़क ही पर ठिठक गये। इसने पहचान लिया तो बड़ी मुश्किल होगी।

धन्नासिंह कह रहा था-कजा आ गयी, तो क्या कर सकता है? बाबूजी के हाथ में कोई डण्डा भी तो न था। दो-चार घूंसे मारे होंगे और क्या मगर उस दिन से फिर बेचारा उठा नहीं।

दूसरे आदमी ने कहा– ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना को कुठांव चोट लग गयी।

धन्नासिंह– बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा जेहल में हम लोग उन्हें भगतजी कहा करते थे।

एक बूढ़ा आदमी बोला-भैया, जेहल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। राज पाकर दयावान रहें, तो जानो।

धन्नासिंह-दादा, वह राज पाकर फूल उठने वाले आदमी नहीं। तुमने देखा, यहां से जाते-ही-जाते माफी दिला दी।

बूढ़ा-अरे पागल, जान का बदला कहीं माफी से चुकता है? तुम बाबूजी को दयावान कहते हो, मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूं। राजा हैं, इससे बचे जाते हैं; दूसरा होता तो फांसी पर लटकाया जाता।

चक्रधर वहां एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न पड़ी।

पांच साल गुजर गये; पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर वही गर्मी के दिन हैं, दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं, मगर अहल्या को न अब पंखे की जरूरत है, न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवा दूसरा काम नहीं। वह अपने को बार-बार धिक्कारती है, कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गयी?

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