उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
शंखधर उससे पूछता रहता है-अम्मां, बाबूजी कब आयेंगे? वह क्यों चले गये, अम्माजी? रानी अम्मा कहती हैं, वह आदमी नहीं देवता हैं। क्यों अम्मा जी, क्या वह देवता हैं? फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है! कभी-कभी अकेले सोचा करता है कि पिताजी कैसे आयेंगे।
शंखधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी नहीं भरता। वह रोज अपनी दादी के पास जाता है। और वहां उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। निर्मला दिन-भर उसकी राह देखा करती है। अहल्या का मुंह भी वह नहीं देखना चाहती।
मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपये महीना वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसलिए मुंशी जी अब अधिकांश घर पर ही रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गयी है; लेकिन संगीत-प्रेम बढ़ गया है। उनके लिए सबसे आनन्द का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिये मुहल्ले भर के बालकों को मिठाइयां और पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की कल्पना ही नहीं कर सकते।
एक दिन शंखधर को गोद में लेकर कहा– बेटा, भगवान से मानती हूं कि मेरी मनोकामना पूरी करें।
शंखधर– भगवान् सबके मन की बात क्या जानते हैं?
निर्मला– हां बेटा, भगवान सब कुछ जानते हैं।
दूसरे दिन प्रात:काल शंखधर ने स्नान किया: लेकिन स्नान करके वह जलपान करके न आया। न जाने कहां चला गया। अहल्या इधर-उधर देखने लगी; कहां चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहां भी न था। अपने कमरे में भी न था छत पर भी न था। दोनों रमणियां घबरायीं कि स्नान करके कहां चला गया। लौंडियों से पूछा तो उन सबों ने भी कहा हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहां चले गये, यह हमें नहीं मालूम। चारों ओर तलाश होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गयीं। वहां भी वह न दिखायी दिया। सहसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहां दिन को भी सन्नाटा रहता था, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहां गयी और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगी। शंखधर तुलसी के चबूतरे के सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के लिए उसने आंखें खोलीं, कई बार चबूतरे की परिक्रमा और तुलसी की वन्दना करके धीरे से उठा। दोनों महिलाएं आड़ से निकल कर उसके सामने खड़ी हो गयीं। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।
मनोरमा– वहां क्या करते थे, बेटा?
शंखधर– कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।
मनोरमा नहीं, कुछ तो कर रहे थे।
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