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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


गुरुसेवक– हां, बेसाही हो! मैंने नहीं बेसाहा, मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होती तो तुम तीस साल यहां रहती कैसे? मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी करोगी और जहां चाहोगी, जाओगी और कोई न बोलेगा? तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य बाप की इज्जत बंधी हुई है।

लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रखकर रोऊं और छाती से लगाकर कहूं– बेटा, मैंने तो तुझे गोद में खेलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहां जा सकती हूं? लेकिन उससे क्रुद्घ भाव से कहा– यह तो अच्छी दिल्लगी हुई। यह मुझे बांधकर रखेंगे।

गुरुसेवक तो झल्लाये हुए बाहर चले गये और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक किसी महरी से क्या कह सकते थे-हम तुम्हें बांधकर रखेंगे? कभी नहीं; लेकिन अपनी स्त्री से वह क्या बात कह सकते हैं; क्योंकि उसके साथ उनकी इज्जत बंधी हुई है। थोड़ी देर के बाद वह उठकर एक महरी से बोली- सुनती है रे, मेरे सिर में दर्द हो रहा है। जरा आकर दबा दे।

सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली-कैसा जी है अम्मां? सिर में दर्द है क्या?

लौंगी– नहीं बेटा, जी तो अच्छा है। आओ, बैठो।

मनोरमा ने महरी से कहा– तुम जाओ मैं दबाये देती हूं।

महरी चली गयी। मनोरमा सिर दबाने बैठी, तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-नहीं बेटा; तुम रहने दो। दर्द नहीं था, यों ही बुला लिया था। कोई देखे तो कहे कि बुढ़िया पगला गई है, रानी से सिर दबवाती है।

मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा– रानी जहां हूं, वहां हूं, यहां तो तुम्हारी गोद की खेलायी नोरा हूं। आज तो भैयाजी यहां से जाकर तुम्हारे ऊपर बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट लूंगा। कितना पूछा- कुछ बताओ तो, बात क्या है? पर गुस्से में कुछ कहे सुने ही न। भाई हैं। तो क्या, पर उनका अन्याय मुझसे भी नहीं देखा जाता। दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने अब तक तुमसे नहीं कहा अम्मांजी, पर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूं, कि पिताजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।

लौंगी पर इस सूचना का जरा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, उत्सुकता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखायी दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।

मनोरमा ने फिर कहा– मेरे पास उनकी लिखाई हुई वसीयत रखी है। और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे तो आंखें खुलेंगी।

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