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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


लौंगी ने गम्भीर स्वर में कहा– नोरा, तुम यह वसीयतनामा ले जाकर उन्हीं को दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखायी। मैं उनकी जायदाद की भूखी नहीं थी; उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूं बेटी, कि इस विषय में मेरा जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही सन्तुष्ट हूं। इसके सिवा अब मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला-पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूं? उसके सामने की थाली किस तरह खींच सकती हूं? वह फाड़कर फेंक दो। यह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे उसी आदर से रखेगा। वह मुझे माने या न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूं। तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है। गुरुसेवक के मुंह से अम्मां सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती, तुम उनसे इतना ही कह देना।

यह कहते-कहते लौंगी की आँखें सजल हो गयीं। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।

२१

जगदीशपुर के ठाकुरद्वारे में नित्य साधु महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता था और उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की तस्वीर थी; उसने मन-ही-मन साधुओं की सूरत का मिलान करता, पर उस सूरत का साधु उसे न दिखायी देती था। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती थी।

एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगी के पास गया। लौंगी बड़े देर तक अपनी तीर्थ-यात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बातें गौर से सुनने के बाद बोला-क्यों दाई, तो तुम्हें साधु-संन्यासी बहुत मिले होंगे।

लौंगी ने कहा–  हां बेटा, मिले क्यों नहीं। एक संन्यासी तो ऐसा मिला था कि हूबहू तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं।

शंखधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा– जटा बड़ी-बड़ी थीं?

लौंगी– नहीं, जटा-सटा तो नहीं थी, न वस्त्र ही गेरुए रंग के थे। हां कमण्डल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथपुरी में रही, वह एक बार रोज मेरे पास आकर पूछ जाते-क्यों माताजी, आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे।

शंखधर बोला– दाई, तुमने यहां तार क्यों न दिया? हम लोग फौरन पहुंच जाते।

लौंगी– अरे, तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था। बिना जाने-बूझे क्यों तार देती?

शंखधर– मैं यदि उन्हें एक बार देख पाऊं, तो फिर कभी साथ ही न छोड़ूं। क्यों दाई, आजकल वह संन्यासी जी कहां होंगे?

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