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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


महमूद– जी नहीं, जहां तक मेरा खयाल है, यहां कभी कुरबानी नहीं हुई।

यशोदा– तो फिर आज आप यहां कुरबानी करने की नयी रस्म क्यों निकाल रहे हैं?

महमूद– इसलिए कि कुरबानी करना हमारा हक है। अब तक हम आपके जजबात का लिहाज करते थे, अपने माने हुए हक को भूल गये थे, लेकिन जब आप लोग अपने हकों के सामने हमारे जजबात की परवा नहीं करते, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने हकों के सामने आपके जजबात की परवा करें।

यशोदा– इसके यह माने है कि कल आप हमारे द्वारों पर हमारे मन्दिरों के सामने कुरबानी करें और हम चुपचाप देखा करें? आप यहां हरगिज कुरबानी नहीं कर सकते और करेंगे, तो इसकी जिम्मेदारी आपके सिर होगी।

यह कहकर यशोदानन्दन फिर तांगे पर बैठे। दस-पांच आदमियों ने तांगे को रोकना चाहा, पर कोचवान ने घोड़ा तेज कर दिया। जब तांगा यशोदा नन्दन के द्वार पर पहुंचा तो वहां हजारों आदमी खड़े थे। इन्हें देखते ही चारों तरफ हलचल मच गयी। लोगों ने चारों तरफ से उन्हें घेर लिया।

यशोदनन्दन तांगे से उतर पड़े और ललकार कर बोले-भाइयों, आप जानते हैं, इस मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी नहीं हुई। अगर हम यहां कुरबानी करने देंगे, तो कौन कह सकता है कि कल को हमारे मन्दिर के सामने गौ-हत्या न होगी!

कई आवाजें एक साथ-साथ आयीं-हम मर मिटेंगे, पर यहां कुरबानी न होने देंगे। आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानन्दन आगे बढे़ और जनता ‘महाबीर और ‘श्री रामचन्द्र, की जय-ध्वनि से वायुमण्डल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली। उधर मुसलमानों ने भी डण्डे संभाले। करीब था कि दोनों में मुँठभेड़ हो जाय कि एकाएक चक्रधर आगे बढ़कर यशोदनन्दन के सामने खड़े हो गए और विनीत, किन्तु दृढ़ भाव से बोले-आप अगर उधर जाते हैं, तो मेरी छाती पर पांव रखकर जाइए। मेरे देखते यह अनर्थ न होने पायेगा।

यशोदानन्दन ने चिढ़कर कहा– हट जाओ। अगर एक क्षण भी देर हुई तो फिर पछताने के सिवा और कुछ हाथ न आयेगा।

चक्रधर– मित्रों, जरा विचार से काम लो।

कई आवाजें-विचार से काम लेना कायरों का काम है।

चक्रधर– तो फिर जाइए लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा।

सहसा एक पत्थर किसी तरफ से आकर चक्रधर के सिर में लगा। खून की धारा बह निकली, लेकिन चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं। सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है।

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