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उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास)

मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


अहल्या ने उसके सामने से खुली हुई किताब उठा ली और दो-चार पंक्तियां पढ़कर बोली-इसमें तो तीर्थों का हाल लिखा हुआ है-जगन्नाथ, बदरीनाथ, काशी और रामेश्वर। यह किताब कहां से लाये?

शंखधर– आज ही तो बाजार से लाया हूं। दाई कहती थी कि बाबूजी की सूरत का एक संन्यासी उन्हें जगन्नाथ में मिला था।

अहल्या ने शंखधर को दया-सजल नेत्रों से देखा; पर उसके मुख से कोई बात न निकली। आह! मेरे लाल। तुझमें इतनी पितृ-भक्ति क्यों है? तू पिता के वियोग में क्यों इतना पागल हो गया है? तुझे तो पिता की सूरत भी याद नहीं। तुझे तो इतना भी याद नहीं कि कब पिता की गोद में बैठा था, कब उनकी प्यार की बातें सुनी थीं। फिर भी तुझे उन पर इतना प्रेम है? और वह इतने निर्दयी हैं। आंसुओं के वेग को दबाती हुई वह बोली-बेटा, तुम्हारा उठने का जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊं।

शंखधर– अच्छा खा लूंगा अम्मां, किसी से खाना भेजवा दो, तुम क्यों लाओगी।

अहल्या एक क्षण में छोटी-सी थाली में भोजन लेकर आयी और शंखधर के सामने रखकर बैठ गयी।

शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। उसे अब तक निश्चित रूप से अपने पिता के विषय में कुछ मालूम न था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ कि वह संन्यासी हो गये हैं। अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसीलिए उसने अहल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथ भेज देना, तुम न आना। अब वह थाल देखकर वह बड़े धर्म-संकट में पड़ा। अगर नहीं खाता; तो अहल्या दु:खी होती है और खाता है तो कौर मुंह में नहीं जाता। उसे खयाल आया, मैं यहां चांदी के थाल में मोहन-भोग उड़ाने बैठा हूं और बाबूजी पर इस समय न जाने क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं। वह थाली पर बैठा: लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा। अहल्या उसके मन का भाव ताड़ गयी और स्वयं रोने लगी कौन किसे समझाता?

आज से अहल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाय। उसने सबको मना कर दिया था कि शंखधर के सामने उसके पिता की चर्चा न करें। कहीं शंखधर अपने पिता के गृह-त्याग का कारण न जान ले। कहीं वह यह न जान जाय कि बाबूजी को राज-पाट से घृणा है, नहीं तो फिर इसे कौन रोकेगा।

उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शंखधर को लेके स्वामी के साथ क्यों न चली गयी? राज्य के लोभ में वह पति तो पहले ही खो बैठी थी, कहीं पुत्र को भी तो न खो बैठेगी।

शंखधर का नाम स्कूल में लिखा दिया है। स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है। यात्री लोग कहां ठहरतें हैं, क्या खाते हैं, जहां रेल नहीं है, वहाँ लोग कैसे जाते हैं, चोर तो नहीं मिलते? लौंगी उसके मनोभाव को ताड़ती है; लेकिन इच्छा न होते हुए भी उसे सारी बातें बतानी पड़ती हैं। वह झुंझलाती है, घुड़क बैठती है; लेकिन जब वह किशोर आग्रह करके उसकी गोद में बैठ जाता है तो उसे दया आ जाती है।

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