उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
मनोरमा– अब दाई यह क्या जाने? संन्यासी कहीं एक जगह रहते हैं, जो वह बता दे? शंखधर– अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी?
लौंगी– मैं समझती हूं, उनकी उम्र ४॰ वर्ष की रही होगी।
शंखधर ने कुछ हिसाब करके कहा– रानी अम्मां, यही तो बाबूजी की भी उम्र होगी।
मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा– हां, हां वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं, बस, अब माना। अभी उम्र ४॰ की कैसे हो जाएगी?
शंखधर समझ गया कि मनोरमा को यह जिक्र बुरा लगता है। इस विषय में फिर मुंह से एक शब्द भी न निकला; लेकिन वहां रहना अब उसके लिए असम्भव था। पुरी का हाल तो भूगोल में पढ़ा था; लेकिन अब उस अल्पज्ञान से उसे सन्तोष न हो सकता था। वह जानना चाहता था कि पुरी को कौन रेल जाती है, वहां जाकर लोग ठहरते कहाँ हैं? घर के पुस्तकालय में शायद कोई ऐसा ग्रन्थ मिल जाए, यह सोचकर वह बाहर आया शोफर से बोला-मुझे घर पहुंचा दो।
घर आकर पुस्तकालय में जा ही रहा था कि गुरुसेवकसिंह मिल गये। शंखधर उन्हें देखते ही बोला-गुरुजी जरा, कृपा करके मुझे पुस्तकालय से कोई ऐसी पुस्तक निकाल दीजिये, जिसमें तीर्थ-स्थानों का पूरा-पूरा हाल लिखा हो।
गुरुसेवक ने कहा– ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है।
शंखधर– अच्छा, तो मेरे लिये कोई ऐसी किताब मंगवा दीजिये।
यह कहकर वह लौटा ही था कि कुछ सोचकर बाहर चला गया और एक मोटर तैयार कराके शहर चला। अभी उसका तेरहवां ही साल था; लेकिन चरित्र में इतनी दृढ़ता थी कि जो बात मन में ठान लेता, उसे पूरा करके छोड़ता। शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दूकानों में तीर्थ-यात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बण्डल लेकर घर आया।
राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहां न था। अहल्या ने जाकर देखा, तो वह अपने कमरे में बैठा कोई किताब देख रहा था।
अहल्या ने कहा– चलकर खाना खा लो, दादाजी बुला रहे हैं।
शंखधर– अम्मांजी, आज मुझे बिल्कुल भूख नहीं है।
अहल्या– कोई नयी किताब लाये हो क्या? अभी भूख नहीं है। कौन-सी किताब है।
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