उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था, जो उसके पति पर आ पड़ा था? वह सोचने की चेष्टा करती, तो क्या इतना भी उसकी समझ में न आता?
मुंशीजी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय प्रेम में इतना अतुरक्त रहता है, कि भविष्य की चिन्ता और बाधाएँ उसे जरा भी भयभीत नहीं करतीं। उसे अपने अंताःकरण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उसके सामने परास्त कर देती है। मुंशीजी दौड़े हुए घर में आये और शिशु को गोद में लेकर बोले- मुझे याद आती है, मंसा भी ऐसा ही था- बिलकुल ऐसा ही!
निर्मला–दीदीजी भी तो यही कहती हैं।
मुशींजी- बिलकुल वही बड़ी-बड़ी आँखें और लाल-लाल ओंठ हैं। ईश्वर ने मुझे मेरा मंसाराम इस रूप में दे दिया। वही माथा है, वही मुँह, वही हाथ-पाँव! ईश्वर, तुम्हारी लीला अपार है।
सहसा रुक्मिणी भी आ गई! मुंशीजी को देखते ही बोली–देखो बाबू, मंसाराम है कि नहीं? वही आया है कोई लाख कहे, मैं न मानूँगी। साफ मंसाराम है। साल भर के लगभग हो भी तो गया।
मुंशीजी–बहिन, एक-एक अंग तो मिलता है। बस, भगवान ने मुझे मेरा मंसाराम दे दिया। (शिशु से) क्यों री, तू मंसाराम ही है? छोड़कर जाने का नाम न लेना; नहीं फिर खींच लाऊँगा। कैसे निष्ठुर होकर भागे थे। आखिर पकड़ लाया कि नहीं? बस कह दिया, अब मुझे छोड़कर जाने का नाम न लेना। देखो बहिन, कैसी टुकुर-टुकुर ताक रही है?
उसी क्षण मुंशीजी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरू कर दिया। मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा। मानव जीवन! तू इतना क्षणभंगुर है, पर तेरी कल्पनाएँ कितनी दीर्घायु! वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रहे थे, जो रात-दिन मृत्यु का आवाहन किया करते थे, तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुँचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पाँव मार रहे हैं।
मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुँचा है?
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