उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
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निर्मला को यद्यपि अपने घर के झंझटों से अवकाश न था, पर कृष्णा के विवाह का संदेश पाकर वह किसी तरह न रुक सकी। उसकी माता ने बहुत आग्रह करके बुलाया था। सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि कृष्णा का विवाह उसी घर में हो रहा था, जहाँ निर्मला का विवाह पहले तय हुआ था। आश्चर्य यही था कि इस बार ये लोग बिना कुछ दहेज लिए कैसे विवाह करने पर तैयार हो गए। निर्मला को कृष्णा के विषय में बड़ी चिन्ता हो रही थी समझती थी- मेरी ही तरह वह भी किसी के गले मढ़ दी जायगी। बहुत चाहती थी कि माता की कुछ सहायता करूँ, जिससे कृष्णा के लिए कोई योग्य वर मिले, लेकिन इधर वकील साहब के घर बैठ जाने और महाजन के नालिस कर देने से उसका हाथ भी तंग था। ऐसी दशा में यह खबर पाकर उसे बड़ी शान्ति मिली। चलने की तैयारी कर ली।
वकील साहब स्टेशन तक पहुँचाने आये। नन्हीं बच्ची से उन्हें बहुत प्रेम था। छोड़ते ही न थे, यहाँ तक कि निर्मला के साथ चलने को तैयार हो गये, लेकिन विवाह से एक महीने पहले उनका ससुराल जा बैठना निर्मला को उचित न मालूम हुआ। निर्मला ने अपनी माता से अब तक अपनी विपत्ति कथा न कही थी। जो बात हो गई, उसका रोना रोकर माता को कष्ट देने और और रुलाने से क्या फायदा? इसलिए उसकी माता समझती थी, निर्मला बड़े आनन्द से है। अब जो निर्मला की सूरत देखी, तो मानों उसके हृदय पर धक्का-सा लग गया। लड़कियाँ ससुराल से घुलकर नहीं आतीं, फिर निर्मला जैसी लड़की, जिसको सुख की सभी सामग्रियाँ प्राप्त थीं।
उसने कितनी लड़कियों को दूज की चन्द्रमा की भाँति ससुराल जाते और पूर्ण चन्द्र बनकर आते देखा था। मन में कल्पना कर रही थी, निर्मला का रंग निखर गया होगा, देह भरकर सुडौल हो गई होगी, अंग-प्रत्यंग की शोभा कुछ और ही हो गई होगी। अब जो देखा, तो वह आधी भी न रही थी। न यौवन की चंचलता थी, न वह विहसित छवि जो हृदय को मोह लेती है। वह कामनीयता, सुकुमारता, जो विलासमय जीवन से आती है, यहाँ नाम को न थी। मुख पीला; चेष्टा गिरी हुई, अंग शिथिल, उन्नीसवें वर्ष में ही बुड्ढी हो गई थी। जब माँ-बेटियाँ रो-धोकर शान्त हुईं, तो माता ने पूछा–क्यों री; तुझे वहाँ खाने को न मिलता था? इससे कहीं अच्छी तो तू यहीं थी। वहाँ तुझे क्या तकलीफ थी?
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