उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
निर्मला–अब समझ गई। रुपये भी तुम्हें न भिजवाये होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूं, मार बैठूंगी।
सुधा–अपने घर बुलाकर के मेहमान का अपमान नहीं किया जाता। निर्मला–देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरे लेती हूं। मैंने तुम्हारा मान रखने को जरा-सा लिख दिया था और तुम सचमुच आ पहुंची। भला वहां वाले क्या कहते होंगे?
सुधा–सबसे कहकर आई हूं।
निर्मला–अब तुम्हारे पास कभी न आऊंगी। इतना तो इशारा कर देतीं कि डॉक्टर साहब से पर्दा रखना।
सुधा–उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़कर कैसी चीज खो दी? अब तो तुम्हें देखकर लालाजी हाथ मलकर रह जाते हैं। मुंह से तो कुछ नहीं सकते, पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।
निर्मला–अब तुम्हारे घर कभी न आऊंगी।
सुधा–अब पिण्ड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है। द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठे जलपान कर रहे थे। मुंशीजी की बगल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें देखा, और कलेजा थामकर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, पर दूसरा…इस विषय में कुछ न कहना ही उचित है।
निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था, पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यह जी चाहता था कि बुलाकर खूब फटकारुं, ऐसे-ऐसे ताने मारुं कि वह भी याद करें, रुला-रुलाकर छोडूं, मगर रहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरी ने आकर कहा–बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही है। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।
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