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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


निर्मला ने थाल छोड़ दिये और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई, डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।

सुधा ने मुस्कराकर कहा–लो बहिन, बुला दिया। अब जितना चाहो, फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूं, भाग नहीं सकते।

डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा–भागता कौन है? यहां तो सिर झुकाए खड़ा हूं।

निर्मला ने हाथ जोड़कर कहा–इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा। यह मेरी विनय है।

१७

कृष्णा के विवाह के बाद सुधा चली गई, लेकिन निर्मला मैके ही में रह गई। वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी। वहां जाने को उसका जी न चाहता था। वहां कोई ऐसी चीज न थी, जो उसे खींच ले जाये। यहां माता की सेवा और छोटे भाइयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनन्द के कट जाता था। वकील साहब खुद आते तो शायद वह जाने पर राजी हो जाती, लेकिन इस विवाह में, मुहल्ले की लड़कियों ने उनकी वह दुर्गत की थी कि बेचारे आने का नाम ही न लेते थे। सुधा ने भी कई बार पत्र लिखा, पर निर्मला ने उससे भी हीले-हबाले किया। आखिर एक दिन सुधा ने नौकर को साथ लिया और स्वयं आ धमकी।

जब दोनों गले मिल चुकीं, तो सुधा ने कहा–तुम्हें तो वहां जाते मानो डर लगता है।

निर्मला–हां बहिन, डर तो लगता है। ब्याह की गई तीन साल में आई, अब की तो वहां उम्र ही खतम हो जायेगी, फिर कौन बुलाता है और कौन आता है?

सुधा–आने को क्या हुआ, जब जी चाहे चली आना। वहां वकील साहब बहुत बेचैन हो रहे हैं।

निर्मला–बहुत बेचैन, रात को शायद नींद न आती हो।

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