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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


दोपहर हो गयी, पर आज भी चूल्हा नहीं जला। खाना भी जीवन का काम है, इसकी किसी को सुध ही न थी। मुंशीजी बाहर बेजान-से पड़े थे और निर्मला भीतर थी। बच्ची कभी भीतर जाती, कभी बाहर। कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार सियाराम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती और ‘बैया-बैया’ पुकारती, पर ‘बैया’ कोई जवाब न देता था।

संध्या समय मुंशीजी आकर निर्मला से बोले- तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं?

निर्मला ने चौंककर पूछा–क्या कीजिएगा।

मुंशीजी–मैं जो पूछता हूं, उसका जवाब दो।

निर्मला–क्या आपको नहीं मालूम है? देनेवाले तो आप ही हैं।

मुंशीजी–तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं या नहीं अगर हों, तो मुझे दे दो, न हों तो साफ जवाब दो।

निर्मला ने अब भी साफ जवाब न दिया। बोली–होंगे तो घर ही में न होंगे। मैंने कहीं और नहीं भेज दिये।

मुंशीजी बाहर चले गये। वह जानते थे कि निर्मला के पास रुपये हैं, वास्तव में थे भी। निर्मला ने यह भी नहीं कहा कि नही हैं या मैं न दूंगी, पर उसकी बातों से प्रकट हो गया कि वह देना नहीं चाहती।

नौ बजे रात तो मुंशीजी ने आकर रुक्मिणी से कहा–बहन, मैं जरा बाहर जा रहा हूं। मेरा बिस्तर भूंगी से बंधवा देना और ट्रंक में कुछ कपड़े रखवाकर बन्द कर देना।

रुक्मिणी भोजन बना रही थीं। बोलीं- बहू तो कमेरे में है, कह क्यों नही देते ? कहां जाने का इरादा है?

मुंशीजी–मैं तुमसे कहता हूं, बहू से कहना होता, तो तुमसे क्यों कहाता? आज तुमे क्यों खाना पका रही हो?

रुक्मिणी–कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिर इस वक्त कहां जा रहे हो? सबेरे न चले जाना।

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