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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मुंशीजी–इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गये। इधर-इधर घूम-घामकर देखूं, शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाये। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधु के साथ बातें कर रहा था। शायद वह कहीं बहका ले गया हो।

रुक्मिणी–तो लौटोगे कब तक?

मुंशीजी–कह नहीं सकता। हफ्ता भर लग जाये महीना भर लग जाये। क्या ठिकाना है?

रुक्मिणी–आज कौन दिन है? किसी पंडित से पूछ लिया है कि नहीं?

मुंशीजी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त उन पर बड़ी दया आयी। उसका सारा क्रोध शान्त हो गया। खुद तो न बोली, बच्ची को जगाकर चुमकारती हुई बोली–देख, तेरे बाबूजी कहां जा रहे हैं? पूछ तो?

बच्ची ने द्वार से झांककर पूछा–बाबू दी, तहां दाते हो?

मुंशीजी–बड़ी दूर जाता हूं बेटी, तुम्हारे भैया को खोजने जाता हूं। बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा–अम बी तलेंगे।

मुंशीजी–बड़ी दूर जाते हैं बच्ची, तुम्हारे वास्ते चीजें लायेंगे। यहां क्यों नहीं आती?

बच्ची मुस्कराकर छिप गयी और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकालकर बोली–अम बी तलेंगे।

मुंशीजी ने उसी स्वर में कहा–तुमको नई ले तलेंगे।

बच्ची–हमको क्यों नई ले तलोगे?

मुंशीजी–तुम तो हमारे पास आती नहीं हो।

लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गयी। थोड़ी देर के लिए मुंशीजी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अन्तर्वेदना भूल गये।

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