लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


सबेरे वह उठकर घर के काम धन्धे में लगी। सहसा नौ बजे भूँगी ने आकर कहा–मंसा बाबू तो अपने कागज-पत्तर सब इक्के पर लाद रहे हैं।

निर्मला ने हकबकाकर पूछा-एक्के पर लाद रहे हो। कहाँ जाते हैं?

भूँगी-मैं पूछा तो बोले, अब स्कूल ही में रहूँगा।

मंसाराम रहने का प्रबन्ध कर आया था। हेडमास्टर साहब ने पहले तो कहा–यहाँ जगह नहीं है, तुमसे पहले के कितने ही लड़कों के प्रार्थना पत्र पड़े हुए हैं। लेकिन जब मंसाराम ने कहा–मुझे जगह न मिलेगी तो कदाचित् मेरा पढ़ना न हो सके और मैं इम्तहान में शरीक न हो सकूँ, तो हेडमास्टर साहब को हार माननी पड़ी। मंसाराम के प्रथम श्रेणी में पास होने की आशा थी। अध्यापकों को विश्वास था कि वह उस शाला की कीर्ति को उज्जवल करेगा। हेडमास्टर साहब ऐसे लड़के को कैसे छोड़ सकते थे? उन्होंने उसके लिए दफ्तर का कमरा खाली कर दिया। इसीलिए मंसाराम वहाँ से आते ही अपना सामान इक्के पर लादने लगा।

मुंशीजी ने कहा–अभी ऐसी क्या जल्दी है? दो- चार दिन में चले जाना मैं चाहता हूँ, तुम्हारे लिए कोई अच्छा -सा रसोइया ठीक कर दूँ।

मंसाराम–वहाँ की रसोइया बहुत अच्छा भोजन पकाता हैं।

मुंशीजी–अपने स्वास्थ का ध्यान रखना। ऐसा न हो कि पढ़ने के पीछे स्वार्थ खो बैठो।

मंसा.-वहाँ नौ बजे के बाद कोई पढ़ने नहीं पाता और सबको नियम के साथ खेलना पड़ता है।

मुंशीजी–बिस्तर क्यों छोड़ देते हो? सोओगे किस पर?

मंसा–कंबल लिये जाता हूँ। बिस्तर की जरूरत नहीं।

मुंशीजी–कहार जब तक तुम्हारा सामान रख रहा है, जाकर कुछ खा लो। रात भी तो कुछ नहीं खाया था।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book