लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मंसा.-वहीं खा लूँगा। रसोइये से भोजन बनाने को कह आया हूँ। यहाँ खाने लगूँगा तो देर होगी।

घर में जियाराम और सियाराम भी भाई के साथ जाने की जिद कर रहे थे। निर्मला उन दोनों को बहला रही थी-बेटा हाँ छोटे लड़के नहीं रहते, सब काम अपने ही हाथ से करना पड़ता है…

एकाएक रुक्मिणी ने आकर कहा–तुम्हारा बज्र का हृदय है, महारानी लड़के ने रात को कुछ नहीं खाया, इस वक्त भी बिना खाये पिये चला जा रहा है, और तुम लड़कों को लिये बातें कर रही हो? उसको तुम जानती नहीं हो। यह समझ लो कि वह स्कूल नहीं जा रहा है, बनवास ले रहा है, लौटकर फिर न आयेगा। यह उन लड़कों में नहीं है, जो खेल के मारे भूल जाते हैं। बात उसके दिल पर पत्थर की लकीर हो जाती है।

निर्मला ने कातर स्वर में कहा–क्या करूँ, दीदी जी? वह किसी की सुनते ही नहरीं आप लजरा जाकर बुला लें। आपके बुलाने से आ जायेंगे।

रुक्मिणी–आखिर हुआ क्या, जिस पर भागा जाता है? घर से उसका जी कभी उचट न होता था। उसे तो अपने घर के सिवाय और कहीं अच्छा ही नहीं लगता था। तुम्हीं ने उसे कुछ कहा होगा, या उसकी कुछ शिकायत की होगी। क्यों अपने लिए काँटे बो रही हो? रानी, घर को मिट्टी में मिलाकर चैन से न बैठने पाओगी।

निर्मला ने रो कर कहा–मैंने उन्हें कुछ कहा हो, तो मेरी जबान कट जाय। हाँ सौतेली, माँ होने के कारण बदनाम तो हूँ ही। आपके हाथ जोड़ती हूँ, जरा जाकर उन्हें बुला लाइये।

रुक्मिणी ने तीव्र स्वर में कहा–तुम क्यों नहीं बुला लातीं क्या छोटी हो जाएगी? अपना होता तो क्या इसी तरह बैठी रहतीं?

निर्मला की दशा उस पंखहीन पक्षी की तरह हो रही थी, जो सर्प को अपनी ओर आते देख कर उड़ना चाहता है, पर उड़ नहीं सकता, उछलता है और गिर पड़ता है; पंख फड़फड़ाकर रह जाता है। उसका हृदय ही अन्दर तड़प रहा था; पर बाहर न जा सकती थी।

इतने में दोनों अन्दर आकर बोले-भैया जी चले गये।

निर्मला मूर्तिवत् खड़ी रही; मानो संज्ञाहीन हो गयी है। चले गये? घर में आये तक नहीं। चले गये। मुझसे इतनी घृणा! मैं उनकी कोई न सकी, उनकी बुआ तो थीं। उनसे तो मिलने आना चाहिए था? मैं यहाँ थी न! अन्दर कैसे कदम रखते? मैं देख लेती न इसलिए चले गए।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book