उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
364 पाठक हैं |
अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
वकील साहब भोजन करके कचहरी जाने से पहिले एक बार उससे अवश्य मिल लिया करते थे। उनके आने का समय हो गया था। आ ही रहे होगें, यह सोचकर निर्मला द्वार पर खड़ी हो गई और उनका इन्तजार करने लगी; लेकिन यह क्या? वह तो बाहर चले जा रहे हैं। गाड़ी जूत कर आ गई, यह हुक्म वह यहीं से दिया करते थे। तो क्या आज वह न आयेंगे, बाहर चले जायेंगे। नहीं ऐसा नहीं होने पायेगा। उसने भूँगी से कहा–जाकर बाबूजी को बुला ला कहना, एक जरूरी काम है, सुन लीजिए।
मुंशीजी जाने को तैयार ही थे। यह सन्देशा पाकर अन्दर आये, पर कमरे में न आकर दूर ही से पूछा क्या बात है, भाई? जल्दी कह दो, मुझे एक जरूरी काम से जाना है। अभी थोड़ी देर हुई, हेडमास्टर साहब का एक पत्र आया हैं कि मंसाराम को ज्वर आ गया है, बेहतर हो कि आप घर पर ही उसका इलाज करें। इसलिए उधर ही से होता हुआ कचहरी जाऊँगा। तुम्हें कोई खास बात तो नहीं कहनी है।
निर्मला पर मानो वज्र गिर पड़ा। आँसुओं के आवेग और कंठ-स्वर में घोर संग्राम होने लगा दोनों पहले निकलने पर तुले हुए थे। दो मे से कोई एक कदम भी पीछे हटना नहीं चाहता था। कंठ-स्वर की दुर्बलता और आँसुओं की सबलता देखकर यह निश्चय करना कठिन नहीं था कि एक क्षण यही संग्राम होता रहा तो मैदान किसके हाथ रहेगा। आखिर दोनों साथ-साथ निकले-लेकिन बाहर आते ही बलवान ने निर्बल को दबा लिया। केवल इतना मुँह से निकला-कोई खास बात नहीं थी। आप तो उधर जा ही रहे हैं।
मुंशीजी–मैंने लड़कों से पूछा था, तो वे कहते थे, कल पढ़ रहे थे, आज न जाने क्या हो गया।
निर्मला ने आवेश से काँपते हुए कहा–यह सब आप कर रहे हैं।
मुंशीजी ने त्योरियाँ बदलकर कहा–मैं कर रहा हूँ? मैं क्या कर रहा हूँ?
निर्मला–अपने दिल से पूछिए।
|