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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


निर्मला–कौन बात थी कह तो?

भूँगी-क्या कहूँ बहूजी, कहते थे मेरे जीने को धिक्कार है। यही कहकर रोने लगे।

निर्मला के मुँह से एक ठंडी साँस निकल गई। ऐसा मालूम होता हुआ, मानो कलेजा बैठा जाता है। उसका रोम- रोम आर्तनाद करने लगा। वह वहाँ बैठी न रह सकी। जाकर बिस्तर पर मुँह ढाँपकर लेट रही और फूट-फूट कर रोने लगी। वह भी जान गये। उसके अतःकरण में बार-बार यही आवाज गूँजने लगी। ‘वह भी जान गये।’ भगवान अब क्या होगा? जिस सन्देह की आग में भस्म हो रही थी, अब शतगुण वेग से धड़कने लगी। उसे अपनी कोई चिन्ता न थी। जीवन में अब सुख की क्या आशा थी, जिसकी उसे लालसा होती? उसने मन को इस विचार से समझाया था कि यह मेरे जिसकी उसे लालसा होती? उसने मन को इस वितार से समझाया था कि यह मेरे पूर्व कामों का प्रायश्चित है। कौन प्राणी ऐसा निर्लज्ज होगा, जो इस दशा में बहुत दिन जी सके? कर्तव्य की वेदी पर उसने अपना जीवन और उसकी सारी कामनाएँ होम कर दी थी हृदय रोता रहता था, पर मुख पर हँसी का रंग भरना पड़ता था। जिसका मुँह देखने को जी न चाहता था, उसके सामने हँस हँस कर बातें करनी पड़ती थीं।

जिस देह का स्पर्श उसे सर्प के शीतल स्पर्श के समान लगता था, उससे आलिंगित होकर उसे जितनी घृणा जितनी मर्मवेदना होती थी, उसे कौन जान सकता है? उस समय उसकी यही इच्छा थी कि धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ! लेकिन सारी विडम्बना अब अत्यन्त भयंकर हो गयी थी। वह अपनी आँखों से मंसाराम की आत्मपीड़ा नहीं देख सकती थी। मंसाराम जैसे मनस्वामी साहसी युवक पर इस आपेक्ष का जो असर पड़ सकता था, उसकी कल्पना ही से उसके प्राण काँप उठते थे। अब चाहे उस पर कितने ही सन्देह क्यों न हों, चाहे उसे ही आत्महत्या ही क्यों न करनी पड़े, पर वह चुप नहीं बैठ सकती। मंसाराम की रक्षा करने के लिए वह विकल हो गई। उसने संकोच और लज्जा की चादर उतार फेंक देने का निश्चय कर लिया।

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