उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
१०
मंसाराम दो दिन तक गहरी चिन्ता में डूबा रहा-बार बार अपनी माता की याद आती, न खाना अच्छा लगता, न पढ़ने ही मे जी लगता। उसकी कायापलट-सी हो गई।
दो दिन गुजर गये और छात्रालय में रहते हुए भी उसने वह काम न किया, जो स्कूल के मास्टरों ने घर से कर लाने को दिया था। परिणाम स्वरुप बेंच पर खड़ा रहना पड़ा। जो बात कभी न हुई थी, वह आज हो गई। यह असह्य अपमान भी उसे सहना पड़ा।
तीसरे दिन वह इन्हीं चिन्ताओं में मग्न हुआ अपने मन को समझा रहा था-क्या संसार में अकेले मेरी ही माता मरी हैं? विमाताएँ तो सभी इसी प्रकार की होती हैं। मेरे साथ कोई नई बात नहीं हो रही है। अब मुझे पुरुष की भाँति द्विगुण परिश्रम से अपना काम करना चाहिए, जैसे माता-पिता राजी रहें, वैसे उन्हें राजी रखना चाहिए। इस साल अगर छात्र-वृत्ति मिल गई तो मुझे घर से कुछ लेने की जरूरत ही न रहेगी। कितने ही लड़के अपने ही बल पर बड़ी-बड़ी उपाधियों प्राप्त कर लेते हैं। बाधाओं पर विजय पाना और अवसर देखकर काम करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है। भाग्य के नाम को रोने कोसने से क्या होगा?
इतने में जियाराम आकर खड़ा हो गया।
मंसाराम ने पूछा-घर का क्या हाल है जिया? नई अम्माँ जी तो बहुत प्रसन्न होगी?
जिया.-उनके मन का हाल तो मैं नहीं जानता, लेकिन जब से तुम आये हो, उन्होंने एक जून में खाना नहीं खाया। जब देखो तो रोया करती हैं। जब बाबूजी आते हैं, तब अलबत्ता हँसने लगती है। तुम चले आये, तो मैंने भी शाम को अपनी किताबें सँभाली! यही तुम्हारे साथ रहना चाहता था। भूँगी चुड़ैल ने जाकर अम्माँजी से कह दिया। बाबूजी बैठे थे, उनके सामने ही अम्माँजी ने आकर मेरी किताबें छीन लीं, और रोकर बोलीं-तुम भी चले जाओगे, तो इस घर में कौन रहेगा? अगर मेरे कारण तुम लोग घर छोड़-छोड़कर भागे जा रहे हो, तो लो, मैं ही कहीं चली जाती हूँ। मैं तो झल्लाया हुआ तो था ही, वहाँ अब बाबूजी भी न थे, बिगड़कर बोला-आप क्यों कहीं चली जायँगी? आपका तो घर है, आप आराम से रहिए। गैर तो हमीं लोग हैं; हम न रहेंगे तब तो आपको आराम ही आराम होगा।
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