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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मंसाराम–तुमने खूब कहा, बहुत ही अच्छा कहा! इस पर और भी झल्लाई होंगी और जाकर बाबूजी से शिकायत की होगी।

जियाराम–नहीं, यह कुछ नहीं हुआ। बेचारी जमीन पर बैठकर रोने लगी। मुझे भी करुणा आ गई। मैं भी रो पड़ा। उन्होंने आँचल से मेरे आँसू पोंछे और बोली-जिया! मैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि मैने तुम्हारे भैया के विषय में तुम्हारे बाबूजी से एक शब्द भी नहीं कहा। मेरे भाग्य में कलंक लिखा हुआ है, वही भोग रही हूँ। फिर और न जाने क्या क्या कहा, जो मेरी समझ मे नहीं आया। कुछ बाबूजी की बात थी।

मंसाराम ने उद्विग्नता से पूछा-बाबूजी के विषय में क्या कहा? कुछ याद है?

जियाराम–बातें तो भई, मुझे याद नहीं आती। मेरी ‘मेमोरी’ कौन बड़ी तेज है; लेकिन उनकी बातों का मतलब कुछ ऐसा मालूम होता था। कि उन्हें बाबूजी को प्रसन्न रखने के लिए यह स्वांग भरना पड़ रहा है। न जाने धर्म-अधर्म की कैसी बातें करती थीं। जो मैं बिलकुल न समझ सका। मुझे तो बस अब इसका विश्वास आ गया है कि उनकी इच्छा तुम्हें यहाँ भेजने की न थी।

मंसाराम–तुम इन चालों का मतलब नहीं समझ सकते। ये बड़ी गहरी चालें हैं।

जियाराम–तुम्हारी समझ में होंगी, मेरी समझ में नहीं है।

मंसाराम–जब तुम ज्योमेट्री नहीं समझ सकते, तो इन बातों को क्या समझ सकोगे। उस रात को जब मुझे खाना खाने के लिए बुलाने आई थीं और उनके आग्रह पर मैं जाने को तैयार भी हो गया था, उस वक्त बाबूजी को देखते ही उन्होंने जो कैंडा बदला वह क्या मैं कभी भी भूल सकता हूँ?

जियाराम–यही बात मेरी समझ में नहीं आती। अभी कल ही मैं यहाँ से गया, तो लगीं तुम्हारा हाल पूछने! मैंने कहा–वह तो कहते थे कि अब कभी इस घर में कदम न रखूँगा। मैंने कुछ झूठ तो कहा नहीं; तुमने मुझसे कहा ही था। इतना सुनना था कि फूट-फूटकर रोने लगीं! मैं दिल में बहुत पछताया कि कहाँ-से कहाँ मैंने यह बात कह दी। बार- बार यही कहती थीं, क्या वह मेरे कारण घर छोड़ देंगे? मुझसे इतने नाराज हैं? चले गये और मुझसे मिले तक नहीं। खाना तैयार था, खाने तक नहीं हैं आये। हाय! मैं क्या बताऊँ, किस विपत्ति में हूँ। इतने में बाबूजी आ गये। बस तुरन्त आँखें पोंछकर मुस्कराती हुई उनके पास चली गईं। यह बात मेरी समझ में नहीं आती।

आज मुझसे बड़ी भिन्नत की कि उनको साथ लेते आना। आज मैं तुम्हें खीच ले चलूँगा। दो दिन में वह कितनी दुबली हो गई हैं, तुम्हें यह देखकर उनपर दया आयेगी। तो चलोगे न?

मंसाराम ने कुछ जवाब न दिया। उसके पैर काँप रहे थे। जियाराम तो हाजिरी की घंटी सुनकर भागा; पर वह बेंच पर लेट गया और इतनी लम्बी साँस ली मानो बहुत देर से उसने साँस ही नहीं ली हैं। उसके मुख से दुस्सह वेदना में डूब हुए शब्द निकले-हाय ईश्वर! इस नाम के सिवा उसे अपना जीवन निराधार मालूम होता था। इस एक उच्छ्वास में कितना नैराश्य था, कितनी समवेदना, कितनी करुणा, कितनी दीन प्रार्थना भरी हुई थी, इसका कौन अनुमान कर सकता है! अब सारा रहस्य उसकी समझ में आ रहा था और बार-बार उसका पीड़ित हृदय आर्तनाद कर रहा था-हाय ईश्वर! इतना घोर कलंक!

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