उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
रुक्मिणी भी आकर बरामदे में खड़ी हो गई थी, बोलीं-वह जन्म का हठी है, यहाँ किसी तरह न आएगा और यह भी देख लेना, वहाँ अच्छा भी न होगा।
मुंशीजी ने कातर स्वर में कहा–तुम दो-चार दिन के लिए वहाँ चली जाओ, तो बड़ा अच्छा हो बहिन! तुम्हारे रहने से उसे तस्कीन होती रहेगी। मेरी बहिन मेरी यह विनय मान लो! अकेली वह रो-रोकर प्राण दे देगा। बस हाय अम्माँ! हाय अम्माँ की रट लगाकर रोया करता है। मै वहीं जा रहा हूँ, मेरे साथ ही चलो। उसकी दशा अच्छी नहीं। बहिन वह सूरत ही नहीं रही। देखे ईश्वर क्या करते हैं? यह कहते-कहते मुंशीजी की आँखों से आँसू बहने लगे; लेकिन रुक्मिणी अविचलित भाव से बोली-मैं जाने को तैयार हूँ। मेरे वहाँ रहने से अगर मेरे लाल के प्राण बच जायँ, तो मैं सिर के बल दौड़ी जाऊँ। लेकिन मेरा कहना गिरह में बाँध लो भैया, वहाँ अच्छा न होगा। मैं उसे खूब पहचानती हूँ। उसे कोई बीमारी नहीं है, केवल घर से निकाले जाने का शोक है। यही दुःख ज्वर के रूप में प्रकट हुआ है। तुम एक नहीं, लाख दवा करो-सिविल सर्जन को ही क्यों न दिखाओ, उसे कोई दवा असर न करेगी।
मुंशीजी–बहिन, उसे घर से निकाला किसने हैं? मैंने तो उसकी पढ़ाई के ख्याल से उसे वहाँ भेजा था।
रुक्मिणी–तुमने चाहे जिस ख्याल से भेजा हो; लेकिन यह बात उसे लग गई। मैं तो अब किसी गिनती में नहीं हूँ, मुझे किसी बात में बोलने का कोई अधिकार नहीं। मालिक तुम, मालकिन तुम्हारी स्त्री। मैं तो केवल तुम्हारी रोटियों पर पड़ी हुई रहा अभागिनी विधवा हूँ। मेरी कौन सुनेगा और कौन परवाह करेगा? लेकिन बिना बोले रह नहीं जाता। मंसा तभी अच्छा होगा जब घर आएगा- जब तुम्हारा हृदय वही हो जायगा, जो पहले था।
यह कहकर रुक्मिणी वहाँ से चली गई, उनकी ज्योतिहीन पर अनुभवपूर्ण आँखों के सामने जो चरित्र हो रहे थे, उनका रहस्य वह खूब समझती थीं और उनका सारा क्रोध निरपराधिनी निर्मला ही पर उतरता था। इस समय भी वह कहते-कहते रुक गई कि जब तक यह लक्ष्मी इस में रहेंगी, इस घर की दशा बिगड़ती ही जायगी। उसको प्रगट रुप से न कहने पर भी उसका आशय मुंशीजी से छिपा नहीं रहा।
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