उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
एक क्षण के बाद मुंशी के मन में एकाएक प्रश्न उठा- कहीं मंसाराम उनके भावों को ताड़ तो नहीं गया? इसीलिए तो उसे घर से घृणा नहीं हो गई है? अगर ऐसा है, तो गजब हो जायगा।
उस अनर्थ की कल्पना ही से मुंशीजी के रोएँ खड़े हो गए और कलेजा धक-धक करने लगा। हृदय में एक धक्का-सा लगा। अगर इस ज्वार का ही कारण है, तो ईश्वर ही मालिक है। इस समय उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी। वह आग जो उन्होंने अपने ठिठुरे हुए हाथों को सेंकने के लिए जलाई थी, अब उनके घर में लगी जा रही थी। इस करुणा, शोक, पश्चात्ताप और शंका से उनका चित्त घबरा उठा। उनके गुप्त रोदन की ध्वनि बाहर निकल सकती तो सुनने वाले रो पड़ते। उनके आँसू बाहर निकल सकते, तो उनका तार बँध जाता। उन्होंने पुत्र के वर्णहीन मुख की ओर एक बार वात्सल्यपूर्ण नेत्रों से देखा, वेदना से विकल होकर उसे छाती से लगा लिया, और इतना रोये कि हिचकी बँध गई।
सामने अस्पताल का फाटक दिखाई दे रहा था।
११
मुंशी तोताराम सन्ध्या के समय कचहरी से घर पहुँचे, तो निर्मला ने पूछा-उन्हें देखा, क्या हाल है?
मुंशीजी ने देखा कि निर्मला के मुख पर नाममात्र को भी शौक या चिन्ता का चिन्ह नहीं है। उसका बनाव-सिंगार और दिनों से भी कुछ गाढ़ा हुआ है। मसलन् वह गले में हार न पहनती थी, पर आज वह भी गले में शोभा दे रहा था। झूमर से उसे भी बहुत प्रेम था; पर आज वह भी महीन रेशमी साड़ी के नीचे, काले-काले केशों के ऊपर, फनूस के दीपक की भाँति चमक रहा था।
मुंशीजी ने मुँह फेरकर कहा–बीमार है, और क्या हाल बताऊँ?
निर्मला–तुम तो उन्हें यहाँ लाने गए थे?
मुंशीजी ने झँझलाकर कहा–वह नहीं आता; तो क्या मैं जबरदस्ती उठा लाता? कितना समझाया कि बेटा घर चलो, वहाँ तुम्हें कोई तकलीफ न होने पावेगी; लेकिन घर का नाम सुनकर उसे जैसे दूना ज्वर हो जाता था। कहने लगा-मैं यहाँ मर जाऊँगा; लेकिन घर न जाऊँगा। आखिर मजबूर होकर अस्पताल पहुँचा आया, और क्या करता।
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