उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
सुधा ने सिर नीचा करके कहा–उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा सकता था?
निर्मला–अब मैं क्या जानू बहिन! सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती। जो पंडित मेरे यहाँ से सन्देश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इन्कार कर रहा है। लड़के की माँ अलबत्ता देवी थी। उसने पुत्र और पति दोनों को समझाया; पर उसकी कुछ न चली।
सुधा–मैं तो उस लड़के को पाती तो खूब आड़े हाथों लेती।
निर्मला–मेरे भाग्य में जो लिखा था वह, हो चुका। बेचारी कृष्णा पर क्या बीतेगी।
सन्धया समय निर्मला के जाने के बाद जब डॉ. साहब बाहर से आये तो सुधा ने कहा–क्यों जी; तुम उस आदमी को क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने के बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह सम्बन्ध कर ले?
डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की ओर कुतूहल से देख कर कहा–ऐसा नहीं करना चाहिए, और क्या!
सुधा–यह क्यों नहीं कहते कि यह घोर नीचता है-पहले सिरे का कमीनापन है!
सिन्हा–हाँ, यह कहने में भी मुझे इन्कार नहीं!
सुधा–किसका अपराध बड़ा है? वर का या वर के पिता का?
सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है?
विस्मय से बोले-जैसी स्थिति हो अगर वह पिता के अधीन हो; तो पिता का ही अपराध समझो।
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