उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
निर्मला–जब डॉ. साहब की नहीं सुनते तो मेरी क्या सुनेंगे?
यह कहते-कहते निर्मला की आँखें डबडबा गईं, और जो शंका; इधर कई महीनों से उसके हृदय को विकल करती रहती थी; मुँह से निकल पड़ी। अब तक उसने उस शंका को छिपाया था; पर अब न छिपा सकी। बोली-बहिन! मुझे तो लक्षण कुछ अच्छे नहीं मालूम होते। देखें, भगवान क्या करते हैं।
सुधा–तुम आज उनसे खूब जोर देकर कहना कि कहीं जलवायु बदलने चलिए। दो-चार महीने बाहर रहने से बहुत-सी बातें भूल जायेंगी। मैं तो समझती हूँ, शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायेगा। तुम कहीं बाहर जा भी तो न सकोगी। यह कौन-सा महीना है?
निर्मला–आठवाँ महीना बीत रहा है। यह चिन्ता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए कभी ईश्वर से प्रार्थना न की थी। यह बला मेरे सर न जाने क्यों मढ़ दी? मैं बड़ी अभागिनी हूँ बहिन! विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहान्त हो गया उनके मरते ही मेरे सिर शनीचर सवार हुए। जहाँ पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आँखे फेर लीं। बेचारी अम्माँ को हारकर मेरा विवाह यहाँ करना पड़ा। अब छोटी बहिन का विवाह होने वाला है। देखे उसकी नाव किस घाट जाती है!
निर्मला–यह तो वो ही जानें। पिताजी न रहे, तो सोने की गठरी कौन देता?
सुधा–यह तो नीचता है! कहाँ के रहने वाले थे?
निर्मला–लखनऊ के। नाम तो याद नहीं, आबकारी के कोई बड़े अफसर थे।
सुधा ने गम्भीर भाव से पूछा-और उनका लड़का क्या करता था।
निर्मला–कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था, पर बड़ा होनहार था।
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