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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


साहब—ओ, तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको दौड़ना सिखायेगा। दौड़ो (पीछे से धक्का देकर) तुम अब भी नहीं दौड़ेगा

यह कहकर साहब हण्टर लेकर चले। फतहचन्द दफ्तर के बाबू होने पर भी मनुष्य ही थे। यदि बलवान होते, तो उस बदमाश का खून पी जाते! अगर उनके पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते; लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी तकदीर में लिखा था। वह बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकलकर सड़क पर आ गये।

दूसरे दिन फतहचन्द दफ्तर न गये। जाकर करते भी क्या साहब ने फाइल का नाम तक न बताया। शायद नशे में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले। मगर इस बेइज्जती ने पैरों में बेड़ियाँ सी डाल दी थीं। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे, हाथ में कोई चीज भी न थी; लेकिन क्या वह उनकी बातों का जवाब न दे सकते थे उनके पैरों में जूते तो थे  क्या वह जूते से काम न कर सकते थे फिर क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की

मगर इलाज ही क्या था यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता, तो उसका क्या बिगड़ता। शायद एक दो महीने की सादी कैद हो जाती। संम्भव है, दो-चार सौ रुपये जुर्माना हो जाते; मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते। यदि उनके पास इतने रुपये होते, जिनसे कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का इन्हें डर न था। जिन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए यह इस तरह डरते। सवाल था सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का।

आज फतहचन्द को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुख हुआ उतना कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तन्दुरुस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती कि वह उनका कान पकड़ता। उसकी आँखें निकाल लेते। कम-से-कम उन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था और न होता तो दो-चार हाथ जमाते ही—पीछे देखा जाता, जेल जाना ही तो होता या और कुछ

वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और बोदेपन पर और भी झल्लाती थी—अगर वह उचक कर उसे दो-चार थप्पड़ लगा देते तो क्या होता—यही कि साहब के खानसामे, बैरे सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते बेदम कर देते। बाल-बच्चों  के सिर जो कुछ पड़ती, पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो जाता कि किसी गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर आज मैं मर जाऊँ तो क्या हो कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा  तब उनके सिर जो कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था।

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