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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


फतहचन्द—अभी-अभी, कोई आधा घण्टा, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण मेरे कान पकड़े और धक्के दिये थे।

साहब—ओ बाबू जी, उस वक्त नशा में था। बेहरा ने हमको बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं क्या हुआ माई गाड! हमको खबर नहीं।

फतहचन्द—नशा में अगर तुमने मुझे गोली मार दी होती, तो क्या मैं मर न जाता अगर तुम्हें नशा था और नशे में सब कुछ मुआफ है, तो मैं भी नशे में हूँ। सुनो मेरा फैसला, या अपने कान पकड़ो कि फिर कभी किसी भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं आकर तुम्हारे कान पकड़ूँगा! समझ गये कि नहीं! इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया। फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूँ। वह करते चलो, पकड़ो कान!

साहब ने बनावटी हँसी-हँसकर कहा—वेल बाबू जी, आप बहुत दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा कहा है, तो हम आपसे माफी माँगता है।

फतहचन्द—(डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो।

साहब आसानी से इतनी जिल्लत न कह सके। लपककर उठे और चाहा कि फतेहचन्द के हाथ से लकड़ी छीन लें, लेकिन फतहचन्द गाफिल न था साहब मेज से उठ भी न पाये थे कि उसने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही चोट सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गयी। एक मिनट तक सिर को पकड़े रहने के बाद बोले—हम तुमको बर्खास्त कर देगा।

फतहचन्द—इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं तुमसे बिना कान पकड़वाये नहीं जाऊँगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ा ही चाहता है।

यह कहकर फतहचन्द ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाय। कान पर हाथ रखकर बोले—अब आप खुश हुआ

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