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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


सरदार साहब उस समय अपने खास कमरे में बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। उन्होंने मुझे देखकर पूछा—क्यों, उस अफ्रीदी को मार आये?

मैंने बैठते हुए कहा—जी हाँ; लेकिन सरदार साहब, न-जाने क्यों मैं कुछ थोड़ा बुजदिल हो गया हूँ।

सरदार साहब ने आश्चर्य से कहा—असदखाँ और बुजदिल! यह दोनों एक जगह होना नामुमकिन है।

मैंने उठते हुए कहा—सरदार साहब, यहाँ तबीयत नहीं लगती, उठकर बरामदे में बैठिये; न मालूम क्यों मेरा दिल घबड़ाता है।

सरदार साहब उठकर मेरे पास आये और स्नेह से मेरी पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा—असद, तुम दौड़ते-दौड़ते थक गये हो, और कोई बात नहीं है। अच्छा चलो, बरामदे में बैठें। शाम की ठंडी हवा तुम्हें ताजा कर देगी।

सरदार साहब और मैं; दोनों बरामदे में जाकर कुर्सियों पर बैठ गये। शहर के चौमुहाने पर उसी वृद्ध की लाश रक्खी थी, और उसके चारों ओर भीड़ लगी हुई थी। बरामदे में जब मुझे बैठे हुए देखा, तो लोग मेरी ओर इशारा करने लगे। सरदार साहब ने यह दृश्य देखकर कहा—असदखाँ, देखो, लोगों की निगाहों में तुम कितने ऊँचे हो। तुम्हारी वीरता को यहाँ का बच्चा-बच्चा सराहता है। अब भी तुम कहते हो कि मैं बुजदिल हूँ?

मैंने मुस्करा के कहा—जब से इस बुड्ढे को मारा है, तब से मेरा दिल मुझे धिक्कार रहा है।

सरदार साहब ने हँसकर कहाँ—क्यों तुमने अपने से निर्बल को मारा है?

मैंने अपनी दिलजमई करते हुए कहा—मुमकिन है ऐसा ही हो।

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