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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


‘‘तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।’’ शिवदत्त ने कह दिया।

इस पर रामाधार ने कह दिया–‘‘इन्द्र की चर्चा तो समाप्त हुई। अब मैं विष्णु के विषय में यह जान सकता हूँ कि वह अब क्या करेगा? आज सुबह साधना कह रही थी कि विष्णु नौकरी ढूँढ़ रहा है।’’

‘‘हाँ।’’ विष्णु का उत्तर था, ‘‘यदि कोई अच्छी-सी नौकरी मिल गयी तो कर लूँगा, नहीं तो कॉलेज में भरती हो जाऊँगा।’’

रामाधार समझ गया कि पिता-पुत्र दोनों इन्द्र के यहाँ रहने को पसंद नहीं करते। इस कारण उसने अपने मन में निश्चय कर लिया कि वह इन्द्र को वहाँ नहीं रखेगा। उसकी आगे पढ़ाई होगी तो उसके अपने बल-बूते पर ही होगी। किसी के आश्रय वह नहीं रहेगा। इतना निश्चय कर उसने इस चर्चा को बन्द कर दिया। उसने कह दिया, ‘‘ठीक है। विष्णु की फेल हो जाने से वह परिस्थिति नहीं रही, जो इन्द्र की है। अब राधा की बात हो जाये। साधना ने एक लड़का बताया है, काका! आपने देखा है उसको?’’

‘‘मैं समझता हूँ कि नगर में लड़की ब्याहने के लिए दहेज का प्रबन्ध करना पड़ेगा। कर सकोगे रामाधार?’’

रामाधार ने पूछ लिया, ‘‘कितना देना होगा?’’

‘‘पहले लड़के को देख लो, पीछे निश्चय कर लिया जायेगा। इस पर भी इतना तो समझ लेना चाहिए कि पाँच हजार के आर-पार हो ही जायेगा।’’

‘‘इतना तो मैं नहीं दे सकूँगा।’’

‘‘तो लखनऊ में लड़का ढूँढ़ने की बात ही छोड़ दो।’’

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