उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘वेद-शास्त्र विद्या का भण्डार है और जो उसके पढ़ने में सहायता करे वह विद्या देने वाला है। स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा तो वेद-शास्त्रों से अरुचि उत्पन्न करती है। अतः वह अविद्या है। उसको बढ़ाना ब्राह्मण का कार्य नहीं है।’’
महेन्द्र ने इन्द्रनारायण की ओर देखकर कहा, ‘‘भैया इन्द्र! तुम जो कुछ पढ़ रहे हो वह विद्या है अथवा अविद्या?’’
‘‘मैं तो विद्या मानकर ही पढ़ रहा हूँ।’’
रामाधार ने कहा, ‘‘मैं इसको ब्राह्मण का कार्य मानकर नहीं पढ़ा रहा।’’’
‘‘तो क्या मानकर पढ़ा रहे हैं?’’
‘‘यह धनोपार्जन के लिए डॉक्टर बनना चाहता है। धन के अर्थ किया कार्य व्यापार हो जाता है। अतः यह व्यापारी अर्थात् वैश्य-वृत्ति करने के लिए पढ़ रहा है।’’
‘‘तो क्या ब्राह्मण निर्धन रहने के लिए ही होते हैं?’’
‘‘मेरा यह अभिप्राय नहीं। धन यदि ब्राह्मण के पास स्वयंमेव आये तो आ जाये। ब्राह्मण उसके फेंक नहीं सकता। परन्तु धन के निमित्त ब्राह्मण का कार्य नहीं होना चाहिये। देखिये, वैश्य हो अथवा कोई डॉक्टर। यदि वह इस निमित्त शिक्षा ग्रहण करता है कि उस विद्या का उसने दान करना है, अर्थात् उसका प्रयोग उसने लोक-हित में करना है तब तो वह ब्राह्मण-वृत्त के लिए अपने को तैयार कर रहा कहा जायेगा, और वह चिकित्सा-कार्य करता हुआ भी ब्राह्मण का कार्य करता हुआ माना जायेगा।
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