उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘वह भी उसने अपनी जेब में रख लिये और दूसरी ओर से पाँच रुपये निकालकर मेरे हाथ में रखते हुए कहा, ‘पण्डितजी! क्षमा करना। मैंने समझा था कि तुम भाव-ताव करोगे। इसी कारण पाँच रुपये तक फैसला करने के लिये पाँच आने से आरम्भ करना चाहता था। परन्तु तुमने तो भाव-ताव किया ही नहीं।’’
इस कथा पर महेन्द्रदत्त विस्मय में रामाधार का मुख देखने लगा। रामाधार मुस्कराता हुआ कहता गया, ‘मुझको तुम्हारे पिता की बात बहुत पसन्द आयी है। समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र तो धन कमाने के लिये नहीं होते। वे समाज की सेवा करने के लिये होते हैं और वैश्य वर्ण के लोग इन तीनों वर्णों के पालन-पोषण के लिये धन कमाते हैं। यह तो समाज की व्यवस्था है। इसी प्रकार एक परिवार में होना चाहिये। यदि एक भाई ब्राह्मण का कार्य करे तो दूसरा वैश्य का कार्य कर सकता है, जिससे पहले का पालन-पोषण कर सके।’’
‘‘परन्तु न तो समाज में ऐसा हो रहा है, न ही परिवार में यह सम्भव प्रतीत होता है। भला वह जो कमायेगा क्यों अपने भाई को देगा?’’ महेन्द्रदत्त ने पूछ लिया।
‘‘इसलिये कि भाई ब्राह्मण का कार्य कर रहा है।’’
‘‘जिनके लिये वह ब्राह्मण का कार्य कर रहा है, वही क्यों न दें?’’
‘‘यही तो कह रहा हूँ कि तुमने स्कूल में अविद्या पढ़ी है और वह भी शूद्र मास्टरों से–उन मास्टरों से जिनका ध्येय अपने मालिकों का कहा मानना है, वास्तविक विद्या का दान करना नहीं।’’
‘‘विद्या क्या है?’’
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