उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘जिससे परिवार, समाज और देशवासियों के प्रति कर्तव्यपालन हो सके, जिससे व्यक्ति में समष्टि व्यक्ति में समष्टि के लिये त्याग की भावना उत्पन्न हो, जिसके द्वारा धर्म में निष्ठा बढ़े।’’
‘‘देखिये जी! मेरी योजना तो यह है कि मैं कुछ रुपये इकट्ठे कर एक व्यवसाय चलाना चाहता हूँ। मैं अपने माता-पिता तथा भाई से उस धनोपार्जन में सहायता लेना नहीं चाहता, जिससे मुझे उनको किसी प्रकार की सहायता देना अनिवार्य न हो जाये।’’
इस योजना को सुनकर तो रामाधार गम्भीर हो गया। उसने केवल यह कहा, ‘‘तुम्हारी बुद्धि का अभी विकास नहीं हुआ। इसमें समय लगेगा। मेरा विचार है अभी तुमको और पढ़ना चाहिये था।’’
‘‘आप समझा दीजिये कि मैंने कौन बात नासमझी की कही है?’’
‘‘देखो बेटा! तुम अपने माता-पिता से राय करो। मैं समझता हूँ कि वे तुमको समझा सकेंगे। मैं तो इतना ही कहना चाहूँगा कि इस धनोपार्जन में तुम अपने माता-पिता और कुछ अंश में अपने भाई से सहायता लेते रहे हो, ले रहे हो और अभी चिरकाल तक लेते रहोगे।’’
महेन्द्र विस्मय में रामाधार का मुख देखने लगा। रामाधार ने कह दिया, ‘‘अच्छा, अब हमको चलने की तैयारी करनी है। तुम जाओ। यह साधना बहन तुम्हारे माता-पिता से बात करेगी।’’
महेन्द्र ने हाथ जोड़ नमस्कार कही और लौट गया। रामाधार इत्यादि इक्के में बैठ अमीनाबाद पार्क के सामने पूरी की दुकान पर पूरी खाने जा बैठे। साधना ने कहा, ‘‘माताजी प्रतीक्षा कर रही होंगी।’’
‘‘नहीं साधना! आज तो पूरी ही खायी जायेगी। अभी हमने कुछ विचार-विनिमय भी करना है।’’
|