उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘कैसे तपस्या करेगा?’’
‘‘यह तो मुझको विदित नहीं। जो पिताजी से सुना है, वही बता रही हूँ।’’
‘‘तो करने दो तपस्या। देखें, क्या करते हैं। भाभी! मेरे मन में उनके लिए ग्लानि भर रही है। वे मनुष्य का मूल्य नहीं समझते। उनको धन में ही सबका मूल्य लगाना आता है। यदि कानपुर वालों के लिए वह पन्द्रह हजार माँगता है तो मुझको घर ले जाने का दाम पाँच हजार ठीक समझता है। अर्थात् मेरा सौन्दर्य उसको दस हजार मूल्य का प्रतीत हुआ है।’’
‘‘परन्तु अब तो वह बिना एक भी पैसा लिए तुमको ले जाने को तैयार है। प्रत्युत् यदि तुम कहो तो तुम्हारे नाम से कुछ जमा भी करने को तैयार है।’’
‘‘बात वही है। उसकी दृष्टि में अब मेरा मूल्य पन्द्रह हजार से अधिक हो गया है। वह महामूर्ख है।’’
‘‘ठीक है। मैंने यही बात उसकी माँ से भी कही थी। मैंने उसको यह भी कहा था कि तुम उसके लड़के से विवाह करने के स्थान पर जन्मभर कुँवारी रहना अधिक पसन्द करोगी।’’
शारदा के इस प्रकार के वचन राधा के मस्तिष्क को शान्त कर रहे थे। शारदा जानती थी कि इस क्रोध के समय में उसकी इच्छा का विरोध किया तो वह अधिक भड़क उठेगी। उसको सँभालने का यही उपाय है कि उसकी पसन्द पर ही बात की जाए।
शारदा ने अपने सास-ससुर को भी बता दिया था कि लड़के को तनिक तपस्या करने दी जाए। इस प्रकार, उसको अपने इष्ट की प्राप्ति का यत्न करने दिया जाए। समय पर राधा को उचित मार्ग बता देंगे।
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