उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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शिवकुमार को उसके पिता ज्ञानेन्द्रदत्त् ने बहुत डाँटा था। उसका कहना था–‘‘तुमने घोर पाप किया है। अब मैं समझता हूँ कि इसका प्रायश्चित्त मुझे करना पड़ेगा।’’
‘‘आप किस बात का प्रायश्चित्त करेंगे?’’
‘‘तुम जैसे नालायाक पुत्र उत्पन्न करने का। तुमने मेरे मुख पर कालिख पोत दी है।’’
‘‘देखो, तुम दोनों का सम्बन्ध विधाता की ओर से लिखा है। तुम्हारी और राधा की कुण्डली परस्पर मेल खाती हैं। तुमने राधा और उसके पिता का अपमान किया है। तुम धन का लोभ कर ब्रह्मणत्व से पतित हो गए हो। पुनः ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए तुम्हें भी तपस्या करनी पड़ेगी।’’
इस पर शिवकुमार कुछ क्षण विचार करने लगा। एकाएक उसको एक बात सूझी। उसने कहा–‘‘पिताजी! मेरी और कानपुर वाली लड़की की कुण्डली क्या मेल नहीं खातीं?’’
‘‘यह कैसे हो सकता है? जब तुम्हारी कुण्डली राधा से मेल खाती है तो उससे कैसे खा सकती है?’’
इस पर शिवकुमार ने कानपुर वाली लड़की की कुण्डली मँगाई और पिताजी को दिखाई। ज्ञानेन्द्रदत्त ने दोनों कुण्डलियाँ सामने रखकर मिलाईं और कह दिया–‘‘यह विवाह कभी सफल नहीं रहेगा। इस पर भी यह बात तुम्हारे देखने की बात है। मैं स्वयं अब इस विवाह में रुचि नहीं लूँगा।’’
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