उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
|
410 पाठक हैं |
संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘मैं तो यह समझती हूँ कि यदि वह पिताजी को सन्तोष दिला सके तो ठीक है।’’
‘‘सत्य?’’ रजनी ने प्रसन्न हो पूछ लिया।
राधा रजनी के उस कथन पर पिछले तीन दिन से मनन कर रही थी, जिससे उसने कहा था, ‘मनुष्य किसी साँचे में ढलकर नहीं आते। कोई भी दो मनुष्य सर्वथा समान नहीं हो सकते। अतः जीवन में सफलता उसको ही मिलती है, जिसमें अनुकूल शक्ति होती है। परस्पर एक-दूसरे के भावों का आदर करना ही जीवन को चलाने के लिए सबसे अच्छा उपाय है।’ इसी विचार से, जो रजनी की उपस्थिति से उसके मन पर छाया हुआ था, वह कह बैठी थी कि यदि वह पिताजी को सन्तुष्ट कर ले, तो ठीक है।
रजनी ने पूछ लिया, ‘‘यदि फिर झगड़ा हो तो क्या करोगी?’’
‘‘अपने इन सिद्धान्तों की रक्षा करते हुए, अनुकूल शक्ति उत्पन्न करने का यत्न करूँगी।’’
उसी सायंकाल बात तय हो गई। अगले दिन विवाह हो गया और श्री शिवकुमार जी राधा को लेकर लखनऊ को चल पड़े।
विवाह का समाचार हवा की भाँति आसपास के गाँवों में फैल गया। कई लोग लड़के को अपनी तपस्या से लड़की को जीतकर ले जाते हुए देखने के लिए एकत्रित हो गए। किसी से पूर्ण कथा कानपुर के एक हिन्दी समाचार-पत्र में भेज दी। वहाँ वह कथा छप गई। शीर्षक था, ‘सफल मजनू।’
|