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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव

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इस वार्ता का प्रभाव शारदा पर विलक्षण हुआ था। वह मन में विचार में विचार कर रही थी कि दो वर्ष में ही उसका पति बहुत कुछ बदल गया है। इस पर भी वह अब इतना बड़ा आदमी हो गया था कि वह उसको कुछ समझा सकने का साहस नहीं कर सकती थी।

रमाकान्त को ऐसा प्रतीत हुआ कि इन्द्र अब उस नौका की भाँति हो गया है, जिसका लंगर टूट गया हो। वह यूरोप की आँधी में बह गया है। उसकी अपनी निष्ठा अभी अपने धर्म-कर्म के संस्कारों और रीति-रिवाजों में वैसे ही बनी थी जैसे इन्द्र के यूरोप जाने के समय थी।

इसके विपरीत इन्द्र को लखनऊ, बियाना की तुलना में एक गाँव के समान, शान्त और पिछड़ा हुआ स्थान प्रतीत हुआ था। लखनऊ को देख उसको वह सोए हुओं का नगर समझ आया था। बम्बई तो कुछ था, परन्तु लखनऊ में अभी भी इक्के चलते थे। सड़कों पर बैल-ठेले मार्ग रोके खड़े दिखाई देते थे। इससे वह समझता था कि यह क्या पिछड़ा हुआ देश है?

रमाकान्त को तो किसी बहती नदी के किनारे पर किसी गड्ढे में पड़े सड़ रहे जल की भाँति समझता था। अपने विषय में वह समझता था कि दो वर्ष में ही वह अपने घर वालों से बहुत दूर बह गया है।

अपनी पत्नी शारदा को उसी प्रकार पान चबाते देख, जैसा वह छोड़ गया था, वह विचार करने लगा कि इसको तो अपने साथ मिलाने के लिए काल के प्रवाह में लाना ही होगा। जब से उसको यह पता चला था कि वह दो हजार रुपये मासिक पर स्थान पा गया है, वह अपने जीवन की नवीन-नवीन योजनाएँ बनाने लगा था।

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