उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो तुम अंग्रेजी पढ़ गए हो?’’
‘‘हाँ दादा! जब मैं शास्त्रादि पढ़ चुका तो पिताजी ने कहा कि थोड़ी अंग्रेजी पढ़कर उस भाषा में साहित्य को भी पढ़ना चाहिए। मैं अपने गाँव से एक स्कूल मास्टर से पढ़ता रहा हूँ और दो वर्ष में ही इस योग्य हो गया हूँ कि अंग्रेजी की पुस्तक पढ़ समझने लगा हूँ।’’
‘‘तो क्या समझते हो?’’
‘‘अभी तक तो यही समझ आया है कि जो कुछ अच्छा है, वह हमारी धर्म-पुस्तकों में पहले ही उपस्थित है और जो कुछ उससे भिन्न है, वह दुःख का कारण है।’’
‘‘इन्द्र हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा, ‘‘देखो रमा! मैंने एक प्रेस देखा था। उसमें एक ओर से कागज मशीन में जाता है और दूसरी ओर से छपकर, पुस्तक के रूप में तह होकर, सिलाई होकर बाहर निकल आता है। एक घंटे में बीस हजार पुस्तकें छपकर तैयार हो जाती हैं। बताओ, तुम्हारे धर्म-शास्त्र में यह लिखा है?’’
‘‘सत्य ही यह अद्भुत है। परन्तु दादा! मैं जब अपनी सुनीला को अपने साथ धर्म के बन्धन में बँधा पाता हूँ और यह अनुभव करता हूँ कि हम एक-दूसरे पर विश्वास और निष्ठा रखते हैं तो मन में एक प्रकार का सन्तोष और सुख मिलता है।’’
इन्द्रनारायण ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया।
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