उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘आज पहली बार देखा है क्या?’’ शारदा ने मुस्कराते हुए कुछ पूछ लिया।
‘‘इन वस्त्रों में तो आज ही देखा है।’’
‘‘मैं आपको इतनी कम बुद्धिवाला नहीं समझती थी कि आप मुझ और मेरे वस्त्राभूषणों में अन्तर नहीं जान सकते। अच्छा कुछ भी हो। शुक्र है परमात्मा का कि आपको मेरे एक गुण का ज्ञान तो हुआ है।’’
इन्द्र शारदा की युक्ति का उत्तर नहीं दे सका।
उसी दिन वे अपनी कोठी में चले गए। वहाँ जाकर शारदा अपने स्थान को शोभायुक्त और सुखप्रद बनाने में लग गई। इन्द्रनारायण अपने दफ्तर के कार्य में मग्न हो गया।
शारदा को नये-नये पुरुष और स्त्रियों से वास्ता पड़ने लगा। भाँति-भाँति के पक्षी आते थे। कोई अपनी उन्नती के अभिलाषी, कोई दवाइयाँ और सामान लाने के ठेकेदार, कोई हस्पताल बनाने के इन्जीनियर और चपरासी से लेकर भिन्न-भिन्न जिलों के हैल्थ ऑफ़िसर तक अपनी पत्नियों के सहित आते और शारदा से परिचय प्राप्त करके उसके द्वारा अपने-अपने कार्य की सिद्धि के चक्कर में लगे रहते थे।
शारदा, जब भी कोई कहता कि उसकी सिफारिश डायरेक्टर साहब से कर दे, तो कहती कि डायरेक्टर साहब सज्जन आदमी हैं। कोई कारण नहीं कि वे किसी के साथ अन्याय करें। आप अपनी बात उनसे कहिए।
इस प्रकार समय व्यतीत हो रहा था। डायरेक्टर साहब को दौरे पर भी जाना होता था। उस समय शारदा कोठी में अकेली रहती थी। इस पर भी अपने शील और बुद्धि से कोठी के कर्मचारियों पर राज्य करती थी।
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