उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘वाह! यह क्या कर दिया?’’ रजनी ने मुस्कराते हुए पूछा।
‘‘तुमने जो कहा कि और मोडो। यह परिणाम तो होना ही था।’’
‘‘सीमा से अधिक मुड़ गई है न? अच्छा भैया! अब तुम जा सकते हो। यह बेंत भी सीमा से अधिक नहीं मुड़ सका।’’
इन्द्र विचार कर रहा था कि रजनी का मस्तिष्क ठीक कार्य नहीं कर रहा। चार-पाँच रुपये का बेंट तुड़वा डाला है। यह विचार करता हुआ वह अपने कमरे में जा पहुँचा।
भीतर जाते ही उसने शारदा को धन्यवाद किया, ‘‘शारदा रानी! तुम जैसी पत्नी का पति होने का अभिमान मुझे पागल बना रहा है।’’ इतना कहते-कहते उसने शारदा को कसकर अपने बाहुपाश में बाँध लिया। शारदा इस प्यार के प्रदर्शन से नाराज नहीं थी। वास्तव में जितना यंत्रणा, उसने पार्टी में लोगों से अपने अंग-प्रत्यंग की प्रशंसा सुन, सही थी, उसका यह प्रतिकार उसको ग्राह्य था। वह प्रसन्न थी। अब उसकी आँखों से विषाद के स्थान प्रसन्नता के आँसू बहने लगे थे।
इन्द्रनारायण ने जब उसकी डबडबाई आँखें देखीं तो उनको चूमकर कहा, ‘‘इसमें रोने की क्या बात है, मेरी रानी?’’
‘‘मैं रो रही हूँ? नहीं। मैं तो प्रसन्नता के आँसू बहा रही हूँ। मैं तो समझती हूँ कि ईश्वर का लाख-लाख धन्यवाद है कि मेरे पतिदेव को अपनी पत्नी का शारीरिक सौन्दर्य, दूसरों के मुख से सुनकर ही सही, पसन्द तो हुआ है।’’
‘‘दूसरों के मुख से सुनकर नहीं। शारदा मैंने अपनी आँखों से भी देखा है।’’
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